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टीकमगढ़

देशी फ्रिज के भी दोगुने बढ़े दाम, १० फीसदी ही लोगों का है स्वदेशी सामानों से जुडाव

इन दिनों गर्मियों का दौर शुरू हो गया है। गर्मी दस्तक देने लगी है। दोपहर के समय गर्मी का थोड़ा अहसास भी होने लगा है।

टीकमगढ़Mar 24, 2019 / 06:48 pm

akhilesh lodhi

Religious works limited to pottery

Religious works limited to pottery

टीकमगढ़/कुंडेश्वर.इन दिनों गर्मियों का दौर शुरू हो गया है। गर्मी दस्तक देने लगी है। दोपहर के समय गर्मी का थोड़ा अहसास भी होने लगा है। आने वाले दिनों में गर्मी की मार अधिक पढऩे लगेगी। ऐसे में दिन में गर्म हवाओं से बचने के लिए लोगों ने घरों से निकलना ही बंद कर देते है। ऐसे में पीने के पानी की अधिक आवश्यकता रहती है। धनवान परिवार के लोग तो घरों में फ्रि ज का पानी पीकर राहत महशूस करते हैं। लेकिन गरीब तबके के लोग देशी फ्रि ज का ही पानी पीकर काम चलाते है। लेकिन कुंडेश्वर सहित आसपास क्षेत्रों में देशी फि ्रज कहे जाने वाले मिट्टी के मटकों पर भी महंगाई की मार पड़ी हुई है। कुंडेश्वर मंदिर के सामने भिलौनी से दिनेश, दिलीप एंव गोपाल कुम्हार बताते हैं कि महंगाई हो जाने के कारण अब तो निम्न कोटि के लोग भी मटका खरीदने से पहले दस बार सोच रहे है। जो मटके पहले 40 से 90 रुपए तक की कीमत थी। अब उनकी दोगुनी 200 तक हो गई है।
कच्चा माल हुआ महंगा
मटका बनाने वाले भिलौनी निवासी दिलीप कुम्हार, दिनेश कुम्हार और गोपाल कुम्हार ने बताया कि मटका बनाने के लिए लकड़ी, मिट्टी की आवश्यकता होती है। लेकिन पिछले वर्ष की तुलना में इस बार लकड़ी, मिट्टी की कीमत में बढ़ोत्तरी हुई है। पिछले वर्ष एक क्विांटल लकड़ी 850 रुपए तक आती थी, आज उसकी कीमत 1000 से 1200 रुपए तक हो गई है। इसके साथ ही मिट्टी की ट्रॉली का भाव 5 हजार से 6 हजार तक पहुंच गया है। वहीं मजदूरों की मजदूरी भी अधिक हो गई हैं। इसके चलते मटके की कीमत में वृद्धि हुई है।
धार्मिक कार्यो तक ही सीमित रहे मिट्टी के बर्तन
आज मिट्टी के बर्तनों का काम केवल धार्मिक कार्यों तक ही सीमित रह गया है। आधुनिक युग के साथ ही मिट्टी के बर्तनों का स्थान आज फ्रि ज ने ले लिया है, तो दीपावली पर भी मिट्टी के दीपकों के स्थान पर रंग बिरंगी लाइटों का प्रयोग किया जाता है।

10 प्रतिशत परिवारों का ही रह गया स्वदेशी सामाग्री से जुड़ाव
मटका व्यापारियों ने बताया कि मिट्टी से बने बर्तनों, मटका, दीपक बनाने वाले परिवारों का रुझान अब पैतृक व्यवसाय से हटता जा रहा है। इसका मुख्य कारण आधुनिक युग के साथ आधुनिक वस्तुओं की लोगों द्वारा अधिक मांग और किसी भी प्रकार का कोई सरकार द्वारा प्रोत्साहन नहीं मिलना है। इसके कारण 20 वर्ष पूर्व जिला मुख्यालय पर 70 परिवार इस काम में लगे हुए थे। वहां आज मात्र 10 परिवार ही आज इस उद्योग से जुड़े हुए है।

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