टीकमगढ़

जीव को भगवान के भोग्य बनना चाहिए: मलूकपीठाधीश्वर

सप्त दिवसीय श्रीवाल्मीकि रामायण कथा का हुआ समापन

टीकमगढ़Jun 06, 2019 / 08:24 pm

anil rawat

Shrivylmiki Ramayana Katha

टीकमगढ़. जीव को केवल भगवान के भोग्य बनना चाहिए। संसार में यदि वह किसी अन्य के भोग्य बनेगा तो इस जीवन-मरण के चक्र से मुक्त नही हो सकेगा। जीव को भगवान के भोग्य बनाने की क्षमता गुरू में होती है। यह बात मलूकपीठाधीश्वर देवाचार्य राजेन्द्रदास महाराज ने श्रीवाल्मीकि रामायण कथा के विश्राम के दिन कहीं। गुरूवार को सप्त दिवसीय श्रीरामकथा का समापन हो गया।


स्थानीय झिरकी बगिया मंदिर में चल रही सप्त दिवसीय श्रीरामकथा का गुरूवार को समापन हो गया। समापन दिवस पर मलूकपीठाधीश्वर देवाचार्य राजेन्द्रदास महाराज ने श्रीराम-भरत मिलाप की कथा पूरी की। इससे पूर्व उन्होंने कहा कि मनुष्य का जन्म, जीवन-मरण के चक्र से मुक्ति पाने के लिए होता है। इसलिए जीव को खुद को भगवान के भोग्य के योग्य बनना चाहिए। उन्होंने कहा कि मनुष्य को सद्गुरू ही भगवान के भोग्य के योग्य बना सकते है। जिस प्रकार किसान धान पैदा करता है, उसे काटता है, सुखाता है, फिर उसे पीस कर उससे चावल तैयार करता है। इसके बाद उसकी स्वादिष्ट खीर या अन्य व्यंजन बनते है, तो उसका प्रसाद ठाकुर जी को लगाया जाता है। ऐसे ही सद्गुरू जीव को भगवान के भोग्य के योग्य बनाते है। उन्होंने कहा कि यदि हम इस सांसारिक मोहमाया में फंसे रहेंगे तो खुद को भगवा के योग्य नही बना पाएंगे। उन्होंने कहा कि यह विशेषता लक्ष्मण, भारत और शत्रुघन में थी।

उत्तम सेवक में 8 गुण होने चाहिए: वहीं मलूकपीठाधीश्वर महाराज ने कहा कि उत्तम सेवक में 8 गुण होने चाहिए। पहला है शौर्य। उन्होंने कहा कि भक्त में शौर्य होना चाहिए। किसी भी विपरीत परिस्थिति का वह सामना कर सके। इसके साथ ही सेवक मेें दक्षता, बल, धैर्य, बुद्धिमत्ता, प्रभाव, निर्गम गुण भी होने चाहिए। एक भक्त एवं पुत्र में यह गुण होना आवश्यक है। उन्होंने कहा कि यह सभी गुण हनुमान जी में थे।


श्रीराम की खड़ाऊ लेकर वापस हुए भरत: वहीं उन्होंने श्रीराम-भरत मिलाप की कथा को आगे बढ़ाते हुए कहा कि श्रीराम को वापस अयोध्या लौटने की जिद कर रहे भरत को श्रीराम समझाते है कि भरत, हम चारों भाई परम धर्म की स्थापना के लिए आए है। यदि हम पिता की आज्ञा का पालन नहीं करेंगें तो परम धर्म की स्थापना कैसे होगी।भगवान के समझाने पर भरत जी उनकी खड़ाऊ लेकर अयोध्या को वापस लौट आते है।

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