राजशाही दौर में जल संरक्षण के लिए अत्याधुनिक तरीके से बावडिय़ों का निर्माण किया गया था। यह जल संरक्षण के साथ ही निर्माण की खास शैली के लिए अलग ही पहचानी जाती है। वर्तमान में बहुत सी बावडिय़ां जहां अपना अस्तित्व खो चुकी हैं तो कुछ बावडिय़ां अब भी पूरी तरह से सुरक्षित हैं और जल संरक्षण का केंद्र बनी हुई हैं। ऐसे में अब पुरातत्व विभाग की नजर इन पर गई है। पुरातत्व विभाग ने इस पर रिसर्च शुरू कर दी है। इसके लिए यहां पर एक टीम पहुंची है जो इनकी स्थित देखकर रिपोर्ट तैयार कर रही है। शनिवार को इस टीम की रिसर्चर वैष्णवी प्रशांत केशवगढ़ पहुंची। यहां पर उन्होंने सरपंच प्रतिनिधि पुष्पेंद्र जैन के साथ गांव में बनी दो बावडिय़ों का निरीक्षण किया। किले के अंदर पानी की पूर्ति के लिए बनी बावड़ी की स्थिति बेहतर थी, लेकिन रखरखाव न होने के कारण पूरे में झाडिय़ां उग आई थी। वहीं किले से 100 की दूरी पर लगभग 5 एकड़ के खेत में पत्थर से बनी नक्काशीदार बावड़ी की हालत खराब थी। इसमें इतने पेड़ और झाडिय़ां उगी थी कि पानी दिखाई नहीं दे रहा था। पुष्पेंद्र जैन ने बताया कि यह टीम बावडिय़ों पर रिसर्च करने आई है। इनकी रिपोर्ट के बाद शासन स्तर से इनका संरक्षण कर इन्हें पर्यटन में शामिल किया जाएगा।
कलात्मक हैं बावडिय़ां वहीं वैष्णवी प्रशांत ने बताया कि वह विभाग के निर्देशन पर बावडिय़ों का निरीक्षण करने आई है। यहां की बावडिय़ां कलात्मक और जल संरक्षण के लिए खास है। उन्होंने अपनी रिसर्च के बारे में ज्यादा जानकारी न देते हुए इतना ही कहा कि वह पूरी रिपोर्ट अपने विभाग को देंगी और फिर विभाग की तय करेगा कि क्या करना है। उनका कहना है वह इसकी ज्यादा जानकारी मीडिया से शेयर नहीं कर सकते हंै, विभाग के अधिकारी ही इसे लेकर कुछ बता पाएंगे।
पत्रिका ने बताया था महत्व विदित हो कि जिले की बावडिय़ों को लेकर पत्रिका ने 18 जून को खबर को प्रमुखता से प्रकाशित किया था। पानी की बूंद-बूंद के लिए तरस रहे शहर को जल संरक्षण के लिए प्रेरित करते हुए पत्रिका ने बताया कि पुराने समय में जल संरक्षण के लिए कितने बेहतर तरीके से प्रबंध किए गए थे। उस समय जिला प्रशासन ने भी इन बावडिय़ों की स्थिति सुधारने के लिए प्रयास शुरू किया था। अब पुरातत्व विभाग इनके महत्व को समझ रहा है।