बुंदेलखंड में दर-दर बिखरी पड़ी पुरासंपदा को सहेजने के लिए पापट संग्रहालय का निर्माण कराया गया था। कुण्डेश्वर स्थित इस पापट संग्रहालय में दूसरी शताब्दी से लेकर 16वीं शताब्दी के बीच की तमाम मूर्तियां बताई जाती हैं। इसमें सबसे अधिक 12वीं शताब्दी की मूर्तियां रखी हुई है, लेकिन यह मूर्तियां सैलानियों तक पहुंचे इसके लिए किसी प्रकार का प्रयास होते नहीं दिखाई दे रहा है। आलम यह है कि कुण्डेश्वर जाने वालों को भी यह जानकारी नहीं होती है कि यहां पर इतना महत्वपूर्ण संग्रहालय भी है। इस संग्रहालय को प्रदर्शित करने वाला एक साइन बोर्ड भी अच्छे से नहीं लगाया गया है। वहीं प्रतिमाओं के आगे उनकी जानकारी भी अंकित नहीं की गई है।
आमजन तक पहुंचाई जाएगी जानकारी इस संबंध में पुरातत्व विभाग के क्यूरेटर घनश्याम बाथम का कहना है कि जल्द ही इस संग्रहालय की मरम्मत कर उचित रखरखाव किया जाएगा। उनका कहना है कि यहां पर उनके विभाग की कंजर्वेशन टीम जाएगी और जो भी काम होना है उसे किया जाएगा। साथ ही इसे आमजन की एप्रोच में लाने के लिए उन्होंने रेलवे स्टेशन के साथ ही कुण्डेश्वर में भी इसके साइन बोर्ड लगवाने की बात कही है।
महान मूर्तिकार थे पापट इस संग्रहालय को लेकर इतिहास के जानकार एवं लाइब्रेरियन विजय मेहरा बताते हैं कि महाराजा वीर ङ्क्षसह जूदेव द्वितीय ने महान मूर्तिकार पापट के नाम पर सन 1952 में इसकी स्थापना कराई थी। महाराज वीर ङ्क्षसह जूदेव के कहने पर ही पुरातत्ववेत्ता और लोक लोकवार्ता के संपादक कृष्णानंद गुप्त, पंडित बनारसीदास चतुर्वेदी और प्रेमनारायण रुसिया ने समूचे क्षेत्र में बिखरी पड़ी पुरा संपदा को एकत्रित किया गया था। पहले यह संग्रहालय बीटीआई में था और बाद में उसे जमडार के तट पर स्थापित किया गया। विजय मेहरा बताते है कि मूर्तिकार पापट 11 वीं सदी में बुंदेलखंड अंचल के बानपुर, आहार, आनंदपुर, मदनेश सागर क्षेत्र में रहते हुए कई मूर्तियों का निर्माण किया है। उनके द्वारा बनाई गई 21 फीट की भगवान शांतिनाथ की प्रतिमा आज भी सिद्धक्षेत्र आहार में देखी जा सकती है।
खंडित हैं अधिकांश प्रतिमाएं यहां पर लगभग 65 प्रतिमाओं को रखा गया है। इसमें अधिकांश प्रतिमाएं खंडित हैं। इसमें भगवान गणेश, श्रीकृष्ण, वामन अवतार, उमा-महेश, ब्रह्मा, वराह, सप्तमातृकाएं, मां काली, यक्ष-यक्षिकाएं, अलंकृत स्तंभ, कुछ जैन प्रतिमाओं के साथ ही सुग्रीव, नवग्रह, सती पत्थर भी यहां पर रखे हुए है। यह सब प्रतिमाएं गुप्तकाल तथा चंदेलकाल की बताई जाती है। विजय मेहरा बताते है कि यह मूर्तियां गुप्त मूर्ति कला का श्रेष्ठ उदाहरण है। इसमें मथुरा शैली की सुघटता और अमरावती शैली का लालित्य झलकता है। वह कहते है कि यदि इस संग्रहालय को उचित स्थान देने के साथ ही इसकी जानकारी पर्यटकों तक पहुंचाई जाए तो यह पर्यटकों के लिए एक नया केंद्र बन सकता है।