बहरहाल, उत्तर भारत के दर्शक ज्योतिका से जरूर परिचित होंगे। वे फिल्म निर्माता चंदर सदाना (चोरी मेरा काम, सौ दिन सास के, औलाद) की बेटी हैं। उन्होंने कॅरियर का आगाज निर्देशक प्रियदर्शन की ‘डोली सजाके रखना’ ( Doli Saja Ke Rakhna ) (1998) से किया था। पहली फिल्म की नाकामी के कारण बॉलीवुड में उनका सिक्का नही चला तो खुशबू की तरह उन्होंने भी दक्षिण का रुख किया।
गौरतलब है कि अस्सी के दशक में अपनी हिन्दी फिल्में पिटने के बाद खुशबू दक्षिण पहुंच गई थीं। वहां वे न सिर्फ कामयाब अभिनेत्री के तौर पर उभरीं, बल्कि उनके नाम पर मंदिर भी बन गए। गोया किस्मत का ताला भी भूगोल के हिसाब से खुलता है। ज्योतिका की किस्मत भी तमिल फिल्मों ने चमकाई। आज उन्हें वहां की व्यस्त नायिकाओं में गिना जाता है। अपनी पहली तमिल फिल्म ‘वाली’ (1999) के लिए उन्होंने फिल्मफेयर अवॉर्ड जीता था। कुछ फिल्मों के लिए वे तमिलनाडु सरकार के अवॉर्ड से भी नवाजी जा चुकी हैं।
तमिल अभिनेता सूर्या के साथ सात फिल्मों में काम करने के बाद ज्योतिका ने उनके साथ सात फेरे ले लिए थे। ‘पोनमगल वंधल’ के निर्माता सूर्या ही हैं। बदले के जाने-पहचाने फार्मूलों वाली इस फिल्म में ज्योतिका ने वकील का किरदार अदा किया है। पिछले साल आईं ज्योतिका की तीन फिल्मों ‘रातचसी’, ‘थाम्बी’ और ‘जैकपॉट’ में से ‘रातचसी’ दक्षिण के दर्शकों की कसौटी पर खरी नहीं उतरी थी। इसमें वे हेडमास्टर बनी थीं, जो एक बदहाल सरकारी स्कूल को राज्य के सबसे बेहतर स्कूल में तब्दील कर देती है। फिल्म की कारोबारी नाकामी के कारण दक्षिण भारत में तो इसको लेकर खास हलचल नहीं हुई, लेकिन तमिलनाडु से करीब साढ़े छह हजार किलोमीटर दूर मलेशिया में वहां के शिक्षा मंत्री डॉ. मेजली मलिक ने अपने अफसरों के साथ यह फिल्म देखी और इसकी सामाजिक प्रासंगिकता की तारीफ की। क्या किस्मत की तरह तारीफ के पीछे भी भूगोल का हिसाब-किताब चलता है?