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Happy Mother’s Day 2019 : बच्चों की ढाल बन ललिता ने संवारी जिदंगी, पति की मौत से संघर्ष में बदल गई जिम्मेदारियां

मेहनत एवं संघर्ष के दम पर निरन्तर आगे बढऩे का प्रयास करते रहना भी जीवन का एक हिस्सा है।
 

टोंकMay 12, 2019 / 09:22 am

pawan sharma

Happy Mother’s Day 2019 : बच्चों की ढाल बन ललिता ने संवारी जिदंगी, पति की मौत से संघर्ष में बदल गई जिम्मेदारियां

दूनी (बंथली). कहने को तो जीवन बहुत ही सरल व छोटा शब्द है, लेकिन जीवन में अक्सर आने वाले उतार-चढ़ाव व दु:खों के पलों को स्वीकार कर मेहनत एवं संघर्ष के दम पर निरन्तर आगे बढऩे का प्रयास करते रहना भी जीवन का एक हिस्सा है।
 

अगर ऐसी ही मेहनत व संघर्ष एक नारी करे तो समाज, गांव में उसका सम्मान कई गुना अधिक बढ़ जाता है। दूनी की ऐसी ही एक महिला पति की मौत के बाद बिना किसी के सहारे कड़ी मेहनत व संघर्षकर तीन मासूमों की परवरिश का भार अपने कंधों पर ले परिवार, समाज, गांव के लिए मिसाल बन गई है।
 


दूनी निवासी ललिता पत्नी ओमप्रकाश शर्मा व पुत्र अनिल, आशीष व पुत्री राधिका सहित हैदराबाद के पटेल नगर (चारमीनार) बाजार में जलेबी-इमरती की थड़ी लगा मेहनत-मजदूरी कर जीवन यापन कर रहे थे।
 

13 अक्टूबर 1991 की सुबह घर में कार्य के दौरान आए करंट ने पति ओमप्रकाश को उससे छीन लिया। हादसे के बाद ललिता पर दु:खों का पहाड़ टूट पड़ा।

 

पति का साथ छुटा तो वह तीनों मासूमों को लेकर अपने गांव दूनी आ गई और गांव में ही स्वेटर बुनाई, कशीदा, कढ़ाई व सिलाई कर अपना व बच्चों का पेट पालने में जुट गई।
 

प्रतिदिन संघर्ष व मेहनतकर बच्चों को गांव के ही निजी विद्यालयों में दाखिला दिलाया और दिन-रात मेहनत कर उनकी फीस जुटा घर का खर्चा भी चलाया।

 

1995 में ललिता की आंगनबाड़ी में 350 मानदेय में आंगनबाड़ी कार्यकर्ता के रूप में लग गई, लेकिन उसने अपना सिलाई का कार्य नहीं छोड़ा और अपने पुत्रों व पुत्री को उच्च शिक्षा दिलाने के हरसंभव प्रयास में लगी रही।
 

इसके बाद पाई-पाई कर जोड़े रुपयों से पुत्र-पुत्रियों का विवाह किया। हालांकि उच्च शिक्षा के बाद पुत्र सरकारी नौकरी नहीं लगे, लेकिन पुत्र अनिल निजी महाविद्यालय में व्याख्याता व आशीष जयपुर में निजी कम्पनी में कार्य कर मां ललिता का सहारा बन गए है।

पाई-पाई जोडकऱ दिलाई शिक्षा
ललिता ने बताया कि पति की मौत के बाद जैसे हिम्मत जवाब दे गई, लेकिन दो पुत्र व एक पुत्री के बालपन ने उसे हिम्मत व दिलासा दी तो वह पति की यादों को संजोए उनकी जिंदगी बनाने में जुट गई।
 

हैदराबाद से दूनी आने पर पहले-पहले तो सिलाई, कढ़ाई व बुनाई के कार्य कम आते थे तो आए रुपयों से बच्चों का पेट भरकर स्वयं उनसे उपवास होने का नाटक करती थी।
 

धीरे-धीरे पड़ोस व मोहल्ले की महिलाओं का साथ मिला तो कार्य बढऩे लगा। आने वाले रुपए बच्चों की शिक्षा पर खर्च करने लगी।

 

इसके बाद आंगनबाड़ी में 350 रुपए मासिक मानदेय पर लगने के बाद थोड़ी राहत मिली और धीरे-धीरे मानदेय बढऩे से घर का गुजारा व बच्चों की शिक्षा होने लगी। उसने बताया वह आज भी पति की मौत को भुला नहीं पाई, लेकिन पुत्रों का सहारा व पुत्री का प्यार उस दर्द को कम कर देता है।

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