तब से अब तक कई राजनैतिक पार्टिया आई। समयानुसार इनके मुद्दों और सिद्धान्तों ने मतदाताओं को लुभाया और शासन भी किया। आमजन को क्या, अपेक्षाएं थी? इनने क्या खोया और क्या पाया? इन वर्षों का लेखा-जोखा लेने के लिए क्षेत्र के 90 वर्ष के आस-पास की उम्र के कुछ मतदाताओं से रूबरू होकर पत्रिका ने जाना है, उनके जहन में उठते सवालों को।
आवां निवासी शिक्षाविद् और सेवानिवृत्त शिक्षक पे्रम शंकर सोमानी ने बताया कि इन्होंने 196 2 के लोकसभा चुनाव में पहला मत दिया था। सोमानी ने बताया कि पहले चुनाव प्रचार के तरीके सरल और सीधे-साधे थे।
चुनावी सभा और मतदाताओं से व्यक्तिगत सम्पर्क प्रभावित करने का प्रभावी साधन था। अब इनका स्थान फेसबुक, ट्वीटर,वाट्सअप, ईस्टाग्राम के साथ इलेक्ट्रॉनिक और प्रिंट मिडिया ने ले लिया है।
जीवन के नब्बे बसंत देख चुके रूपचन्द चन्देल का कहना है कि उन्होंने 1952 के चुनाव में पहला मतदान किया था। समय गुजरने के साथ राजनीति में व्यक्तिगत स्वार्थ, सिद्धान्तों पर हावी होते जा रहे हैं। धनबल, भुज बल और जातिवाद के बीच लोकतन्त्र कसमकसा रहा है।
चांदसिंहपुरा निवासी 91 वर्षीय रामलक्ष्मण खाती ने बताया कि आजादी के बाद से कई सरकारें आई और गई, लेकिन बेरोजगारी, भ्रष्टाचार और अपराध पर वांछित लगाम नहीं लग पाया है। गरीबी दूर करने की सब बात करते है, इसे दूर करने के उपायों पर पूरी तरह अमल नहीं हो पा रहा है।
चांदसिंहपुरा के ही 93 वर्षीय हरजी लाल गुर्जर ने चुनाव आयोग के सक्रिय होने से स्वतन्त्र, निष्पक्ष और भयमुक्त चुनाव की बयार चलने के साथ मतदान प्रतिशत में वृद्धि हुई है। उन्होंने बताया कि पहले सेवा के लिए लोग राजनीति में आते थे। अब वो बात कम नजर आती है। चुनाव से पहले के वादे सपने बन जाते हैं, जीतने के बाद जनता की परवाह गिने-चुने ही करते हैं।
आजादी के इतने सालों बाद भी ग्रामीण क्षेत्रों मेेें शिक्षा, सडक़, बिजली, पानी और चिकित्सा जैसी मूलभूत सुविधाओं का अभाव दिल में खटक रहा है। देश को आदर्श और मूल्यपरक राजनीति की आवश्यकता है।