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उदयपुर में राज्यस्तरीय पैरा एथलेटिक्स चैम्पियनशिप, बेटियां बोली, कोई नहीं है हम जैसा हुनरबाज

locationउदयपुरPublished: Dec 27, 2017 04:57:22 pm

Submitted by:

bhuvanesh pandya

-आखिर कोई उन्हें कैसे रोक सकता है, जीवटता के ये वे दर्पण हैं, जो हर किसी को बड़ी से बड़ी प्रेरणा दे जाते हैं। तमाम मुश्किलों से लडक़र जीतने वाली ये वे

Athletics championship in udaipur
उदयपुर . आखिर कोई उन्हें कैसे रोक सकता है, जीवटता के ये वे दर्पण हैं, जो हर किसी को बड़ी से बड़ी प्रेरणा दे जाते हैं। तमाम मुश्किलों से लडक़र जीतने वाली ये वे बेटियां है, जिन्होंने समाज में अपना एक अलग मुकाम बनाया है, जिस हालात में हर हिम्मतवाला अपनी हिम्मत छोड़ सकता है, वहां इन बेटियों ने अपनी राह खुद चुन कर पूरी दुनिया का चौकाया है। पत्रिका से बेटियों की विशेष बातचीत।
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घर छोड़ा और बनाया मुकाम…
मोना अग्रवाल (सीकर)
एक समय था, जब लोग घर से निकलने नहीं देते थे। जबरन घर छोड़ा और मुकाम बनाया। जब परिवार के लोगों ने मोना की डॉक्यूमेंट्री टीवी पर देखी तो वह गर्व करने लगे। राष्ट्रीय वालीबॉल खिलाड़ी मोना ने बताया कि जीवन में कई संघर्ष होते हैं, लेकिन हमें अपनी हिम्मत जुटा कर परिवार और समाज से लडऩा होता है। सामान्य वर्ग की लड़कियों की राह आसान नहीं होती। सबसे पहले सुरक्षा की बात पर परिवार ही अपनी राह रोकता है। बकौल मोना मेरा परिवार नेपाल रहता है, मैंने करीब छह वर्ष पहले जिद में अपना घर छोड़ा था। एथलेटिक्स और वालीबॉल खेल में नाम कमाया, लेकिन यह सफर मुश्किल था, पग-पग पर परेशानियों का सामना किया। जयपुर में अकेली रहने वाली मोना ने एमबीए किया है। बेंगलूरु में एक मल्टीनेशनल कंपनी में ८० हजार रुपए मासिक वेतन की नौकरी छोड़ वह खेलों में आई है, वह वालीबॉल में भारतीय महिला टीम में शामिल होने वाली खिलाडि़यों में से एक है। मोना ने कुछ समय पहले कोयम्बटूर में इंडियन कैंप में हिस्सा लिया है। जल्द ही देश के लिए खेलेगी।
पहली तैराकी प्रशिक्षक बनी
किरण टांक (जोधपुर)
जोधपुर से तैराकी करने वाली किरण की राह बेहद मुश्किल थी। अन्तरराष्ट्रीय खिलाड़ी और भारत की पहली पैरा तैराक, जो गुजरात के गोधरा में बतौर प्रशिक्षक कार्यरत है। परिवार ने बेहद विरोध किया था। २००३ में खेलों का सफर शुरू करने वाली किरण ने बताया कि जब उन्होंने खेलना शुरू किया तो पूरा गांव खिलाफ हो गया था। गांव वालों ने परिवार को कहा कि लडक़ी को कहां भेज रहे हो, लेकिन पिता ने मेरी हौसला अफजाई की और मुझे यहां तक भेजा। अब तक कई देशों में तैराकी का हुनर दिखा चुकी हूं। अब नई पौध तैयार कर रही हूं।
अभी बड़ी उड़ान बाकी है
जीतू कंवर (जोधपुर)
जीतू ने बताया कि वह लोक प्रशासन ने पीएचडी कर रही है। एक वर्ष में राष्ट्रीय एथलीट बनी जीतू जीवन में मुश्किलें बहुत आई, लेकिन मैंने अपना लक्ष्य बड़ा रखा है, हिम्मत से उड़ान भरती चली गई। मुझे यूनाइटेड नेशन तक पहुंचना है। बकौल जीतू वह दिल्ली में रहती है, मॉडलिंग करना शुरू किया है। यदि समस्या का डटकर सामना करेंगे, तो हर राह आसान होती जाएगी। एमए में गोल्ड मैडल प्राप्त किया है, माता-पिता ने पूरा सहयोग किया है।
समाज ने लगवाया साढे़ चार लाख का पैर
संगीता विश्नोई
लंदन से अन्तरराष्ट्रीय खेल का कॅरियर बनाने वाली संगीता ने अपना सफर जोधपुर की एक संस्था से शुरू किया। हाथ और पैर नहीं होने के बावजूद खूब मेहनत की और अब देश-विदेश में अपना नाम कर रही है। संगीता ने बताया कि अमरीका से करीब साढे़ चार लाख रुपए में ये पैर विश्नोई समाज ने सहयोग कर बनवाया। वह देश की पहली खिलाड़ी है जो एेसा पैर लगवा चुकी है। माता-पिता ने यहां तक लाने में खूब मदद की, पहले प्रेक्टिस के दौरान आलस करती थी, लेकिन जब से देश की सोचने लगी हूं खूब मेहनत करती हूं।
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