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उदयपुर

लेकसिटी में असर छोड़ रहा अलवर के मौलिया ग्राम की मिट्टी का जादू, सात बरस से सैलानियों के ल‍िए आकर्षण

लुभाते हैं मिट्टी से बने डेकोरेटिव आयटम्स और किचन सेट

उदयपुरNov 15, 2019 / 03:14 pm

madhulika singh

लेकसिटी में असर छोड़ रहा अलवर के मौलिया ग्राम की मिट्टी का जादू, सात बरस से सैलानियों के ल‍िए आकर्षण

लेकसिटी में असर छोड़ रहा अलवर के मौलिया ग्राम की मिट्टी का जादू, सात बरस से सैलानियों के ल‍िए आकर्षण

राकेश शर्मा राजदीप/उदयपुर . पिछले कई बरसों से जिंदगी का हिस्सा बन गए प्लास्टिक और एल्यूमिनियम से आमजन अब मुक्ति पाने के लिए कमर कस चुका है। ऐसे में बाजार में एक बार फिर पुरानी और परम्परागत सामग्री का दौर लौटता नजर आ रहा है। हालांकि, तरक्की और रफ्तार के साथ बदले समय के बीच कुछ वस्तुएं और साधन-संसाधन चलन से बाहर नहीं हुए। बेशक, उनका स्वरूप जरूर वक्त के मुताबिक बदल गया। जी हां, हम बात कर रहे हैं मिट्टी से बने खिलौने, डेकोरेटिव आइटम्स और बर्तनों की, जो कई दशकों से बाकायदा इंसान की जरूरत बने हुए हैं।
वैसे तो भले ही पूरे देश के कई राज्य, खासकर कुछ स्थान विशेष माटी की कलाओं को लेकर प्रसिद्ध हैं। जिनमें खुर्जा, चुनार, टीकमगढ़ के अलावा नोखा शामिल है। ऐसे ही मेवाड़ की बात हो तो यहां नाथद्वारा के समीप मोलेला सहित कतिपय अन्य क्षेत्रों में पानी के मटके, दूध-दही के बर्तन, मिट्टी के तवे और गृहसज्जा की कई खूबसूरत सामग्री स्थानीय लोगों सहित पर्यटकों को लुभाती हैं। जिनका संग्रह हवाला गांव स्थित शिल्पग्राम में देखा जा सकता है, लेकिन, यहां अलवर के मौलिया ग्राम से आए मृण शिल्पकार गंगासहाय प्रजापत पिछले सात बरस से सैलानियों के आकर्षण का केंद्र बने हुए हैं।
गौरतलब है कि महज दस वर्ष की उम्र से ही गंगासहाय पुश्तैनी काम अपने पिता छोटेलाल और दादा गुटालू के सान्निध्य में पैतृक गांव में ही बखूबी करने लगे थे। इस बीच वर्ष 2003 में जिला स्तरीय पुरस्कार पाने के बाद पांचवीं पास गंगासहाय ने उदयपुर के शिल्पग्राम में रहकर कला-साधना करने की मंशा जताई। उस समय इनके दोनों पुत्र प्रेम व घनश्याम गांव के स्कूल में ही प्राथमिक पढ़ाई कर रहे थे। लिहाजा, वे अकेले ही लेकसिटी आकर रम गए।
इस दौरान एक विदेशी पर्यटक की डिमांड पर इन्होंने वर्ष 2014 में छह फीट ऊंचे फ्लावर पॉट बनाकर इस कला को परवान चढ़ाया। बाद में वर्ष 2016 में इनके दोनों पुत्रों ने उदयपुर आकर इनका हाथ बंटाया। वर्तमान में दोनों पुत्र वधुएं भी इसी पारम्परिक काम को कुशलता से साध रही हंै।
तीन रंग की मिट्टी का मिश्रण है खास

शिल्पग्राम मेले के दौरान और फिर पूरे साल भर अलवर की खास मिट्टी से बने बर्तनों और डेकोरेटिव पीस की खासियत पूछने पर गंगासहाय बताते हैं कि मोलेला शिल्प की तरह ही उनके पुश्तैनी गांव के आसपास तालाब और मैदानों से निकली काली, लाल तथा पीली मिट्टी के मिश्रण से बने सभी आइटम्स लोग बड़े शौक से खरीदकर ले जाते हैं। वे बताते हैं विश्व स्वास्थ्य संगठन ने भी ‘मिट्टी के बने बर्तन अपनाओ-स्वस्थ जीवन बनाओ’ नारा बुलंद किया था। शायद इसी कारण पिछले कुछ साल में यकायक डिमांड बढ़ी है। हालांकि, उच्च घरानों और बड़े होटल तथा रिसोर्ट में हैंडीक्राफ्ट आइटम्स काफी समय से मांग में बने थे।
बहुत श्रम और समय लगता है गढऩे में

बहुत लोगों को मिट्टी के हस्तशिल्प और बर्तन अपेक्षाकृत महंगे लगते हैं, लेकिन उसके पीछे की मेहनत शायद किसी को नजर नहीं आती। अलग-अलग जगह से मिट्टी लाना, मिश्रण करना, सुखाना और फिर कूट-पीसकर छानना व गलाना बहुत मेहनत का काम होता है। इसके बाद भी हाथ से चलने वाले चाक पर बर्तनों को गढऩे और भट्टी में कई-कई बार पकाने के दौरान इनके चटकने-टूटने का खतरा हरपल बना रहता है। इस बीच इनकी फिनिशिंग और जरूरत के हिसाब से डिजाइनिंग व कलर का काम भी काफी श्रम साध्य होता है।
बरकरार है इन सबका क्रेज

बहरहाल, गांव से झीलों की नगरी आकर मटकों, दीयों, कुल्हड़ों, चिलम, धूपाने और मिट्टी के तवों का क्रेज डेकोरेटिव फ्लावर पॉट्स, सुराही, मिट्टी के कप, दूध-दही के बर्तन, बॉटल, बाउल, टी पॉट, कुकिंग हांडी और फ्राई पैन में जरूर बदल गया। बावजूद इसके सीजन में पारम्परिक वस्तुओं की मांग पहले की तरह आज भी बरकरार है।
अंतरराष्ट्रीय सम्मान की चाह

ग्राहकों की मांग पर और बहुत बार अपनी मौज में गंगासहाय और इनका परिवार 5 मिलीमीटर की सूक्ष्मतम मिट्टी की कृति से लेकर आठ से बारह फीट ऊंचे आइटम बनाता रहा है। इस कला के प्रचार-प्रसार को लेकर नई पीढ़ी के प्रति ये सभी बेहद आशान्वित हैं। वे कहते हैं कि भले ही अपने समय में हमने गुजारे लायक पढ़ाई की, लेकिन घर की परम्परा और मिट्टी के संस्कारों से हमेशा जुड़े रहे। ये जरूर है कि आने वाली पीढ़ी को जड़ों से जोड़े रखने और हस्तशिल्प कला को आगे बढ़ाने का काम करते रहेंगे। पूरा परिवार चाहता है कि राष्ट्रीय-अंतरराष्ट्रीय स्तर पर इस कला की ख्याति फैले।
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