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दक्षिणी राजस्थान में उडऩ गिलहरी के अस्तित्व पर संकट के बादल

locationउदयपुरPublished: Jun 22, 2019 03:04:43 pm

Submitted by:

Bhagwati Teli

अमूमन दक्षिण राजस्थान में पाई जाने वाली उडऩ गिलहरी Flying squirrel के अस्तित्व पर संकट के बादल मंडरा रहे हैं। संभाग में सिर्फ सीतामाता व फुलवारी की नाल के घने अभयारण्यों में ही उडऩ गिलहरी का बसेरा रहा है। इनमें बरसों पुराने बड़े और ऊंचाई वाले खोखल वाले वृक्षों के विनाश के साथ ही इनका आवास उजड़ता जा रहा है। वैशाखी पूर्णिमा पर हुई वन्यजीव गणना में सीतामाता sitamata sanctuary में 86 व फुलवारी की नाल में 91 उडऩ गिलहरियां देखी गई। हालांकि गत वर्ष की तुलना में 10 उडऩ गिलहरी अधिक दिखी हैं मगर वन्यजीव प्रेमियों व पक्षीविदों की मानें तो वन विभाग के पास इनकी संख्या का आंकड़ा सही नहीं है। दो दशक पूर्व इन अभयारण्यों sanctuary में 10 से 15 की संख्या के झुण्ड में दिखने वाली उडऩ गिलहरियां अब 3.4 की संख्या में ही दिखती हैं।

Flying squirrel - south rajatshan-forest department-sitamata sanctuary

दक्षिणी राजस्थान में उडऩ गिलहरी के अस्तित्व पर संकट के बादल

उदयपुर . अमूमन दक्षिण राजस्थान में पाई जाने वाली उडऩ गिलहरी flying squirrel के अस्तित्व पर संकट के बादल मंडरा रहे हैं। संभाग में सिर्फ सीतामाता व फुलवारी की नाल के घने अभयारण्यों में ही उडऩ गिलहरी का बसेरा रहा है। इनमें बरसों पुराने बड़े और ऊंचाई वाले खोखल वाले वृक्षों के विनाश के साथ ही इनका आवास उजड़ता जा रहा है। वैशाखी पूर्णिमा पर हुई वन्यजीव गणना में सीतामाता sitamata sanctuary में 86 व फुलवारी की नाल phoolwari ki naal में 91 उडऩ गिलहरियां देखी गई। हालांकि गत वर्ष की तुलना में 10 उडऩ गिलहरी अधिक दिखी हैं मगर वन्यजीव प्रेमियों व पक्षीविदों की मानें तो वन विभाग forest department के पास इनकी संख्या का आंकड़ा सही नहीं है। दो दशक पूर्व इन अभयारण्यों में 10 से 15 की संख्या के झुण्ड में दिखने वाली उडऩ गिलहरियां अब 3.4 की संख्या में ही दिखती हैं।
आसानी से दिखने वाली उडऩ गिलहरी अब मुश्किल से देखने में आती है। वर्ष में एक बार वाॅटरहोल पर होने वाली गणना में इसकी संख्या का आंकड़ा सटीक नहीं बैठता है। इनकी संख्या हमेशा आनुमानित ही बताई जाती है। इसकी पक्षीविदें के साथ अलग से गणना की चाहिए।
ऐसी होती उडऩ गिलहरी

यह छरहरे बदन का रात्रिचर कुतरने वाला प्राणी है। यह वृक्षों के शीर्ष से उड़ान भर कर नीचे की तरफ आ सकता है लेकिन भूमि तल से उड़ान भरकर वृक्षों के शीर्ष तक नहीं पहुंच सकता है। यह वन्य जीव सूर्यास्त होते ही खोखल में बने अपने घोंसले से बाहर आता है और सूर्योदय से पहले घोंसले में लौट आता है। दिनभर में यह घोंसले में ही रहता है। यह कठोर फल खाना पसंद करता है। महुआ वृक्ष की अंतिम शाखाओं के नए गूदेदार केन्द्रीय भाग को यह गिलहरी बड़े चाव से खाता है।
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पेड़ों की अंधाधुंध कटाई

अभयारण्यों में गत दो दशक में हुई वनों की कटाई से इस निशाचर प्राणी के आवास स्थल वाले बड़े पेड़ कुल्हाडी की भेंट चढ़ गए हैं। महुआ, अर्जुन, बहेड़ा, इमली, आम, पलाश, जामुन, धाक, रोहण, तेंदू व पीपल जैसे बड़े, मौटे और ऊंचाई वाले पेड़ खत्म होते जा रहे हैं। एक अन्य बड़ा कारण अभयारण्यों में अतिक्रमण को भी माना जा रहा है।
पतझड़ में हो गिनती

उडऩ गिलहरियों की गणना का सही समय पतझड़ का मौसम है। वन्यजीवों के साथ गणना नहीं की जानी चाहिए। वर्षों तक पक्षियों पर अध्ययन करने वाले पक्षीविद् एवं प्रकृति प्रेमी देवेन्द्र मिस्त्री का कहना है कि उडऩ गिलहरी की गणना फरवरी से मार्च के बीच पतझड़ के समय होनी चाहिए क्योंकि यह निशाचर प्राणी है जो देर शाम को अपने आवास से बाहर निकलते ही पेड़ों के पत्तों में छिपे रहते हैं। इस दौरान पेड़ों पर पत्ते काफी कम हो जाते हैं जिससे इसके छिपने की ज्यादा जगह नहीं मिलती है।
महुए व बड़े पेड़ों के संवर्धन की जरूरत

सेवानिवृत्त उप वन संरक्षक पीसी जैन का मानना है कि उडऩ गिलहरी अधिकतर महुए के पेड़ों को बसेरा बनाती है। समय के साथ पुराने पेड़ खत्म हो रहे हैं। साथ ही अभयारण्यों में बढ़ती खेती के लिए बड़े पेड़ काटे जा रहे हैं। ऐसे में महुए की पौध तैयार कर उसके बड़े पेड़ों बनने तक संवर्धन व संरक्षण की जरूरत है।
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