आसानी से दिखने वाली उडऩ गिलहरी अब मुश्किल से देखने में आती है। वर्ष में एक बार वाॅटरहोल पर होने वाली गणना में इसकी संख्या का आंकड़ा सटीक नहीं बैठता है। इनकी संख्या हमेशा आनुमानित ही बताई जाती है। इसकी पक्षीविदें के साथ अलग से गणना की चाहिए।
ऐसी होती उडऩ गिलहरी यह छरहरे बदन का रात्रिचर कुतरने वाला प्राणी है। यह वृक्षों के शीर्ष से उड़ान भर कर नीचे की तरफ आ सकता है लेकिन भूमि तल से उड़ान भरकर वृक्षों के शीर्ष तक नहीं पहुंच सकता है। यह वन्य जीव सूर्यास्त होते ही खोखल में बने अपने घोंसले से बाहर आता है और सूर्योदय से पहले घोंसले में लौट आता है। दिनभर में यह घोंसले में ही रहता है। यह कठोर फल खाना पसंद करता है। महुआ वृक्ष की अंतिम शाखाओं के नए गूदेदार केन्द्रीय भाग को यह गिलहरी बड़े चाव से खाता है।
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हवाई जहाज से पशुपतिनाथ के दर्शन को जाएंगे तीर्थ यात्री पेड़ों की अंधाधुंध कटाई अभयारण्यों में गत दो दशक में हुई वनों की कटाई से इस निशाचर प्राणी के आवास स्थल वाले बड़े पेड़ कुल्हाडी की भेंट चढ़ गए हैं। महुआ, अर्जुन, बहेड़ा, इमली, आम, पलाश, जामुन, धाक, रोहण, तेंदू व पीपल जैसे बड़े, मौटे और ऊंचाई वाले पेड़ खत्म होते जा रहे हैं। एक अन्य बड़ा कारण अभयारण्यों में अतिक्रमण को भी माना जा रहा है।
पतझड़ में हो गिनती उडऩ गिलहरियों की गणना का सही समय पतझड़ का मौसम है। वन्यजीवों के साथ गणना नहीं की जानी चाहिए। वर्षों तक पक्षियों पर अध्ययन करने वाले पक्षीविद् एवं प्रकृति प्रेमी देवेन्द्र मिस्त्री का कहना है कि उडऩ गिलहरी की गणना फरवरी से मार्च के बीच पतझड़ के समय होनी चाहिए क्योंकि यह निशाचर प्राणी है जो देर शाम को अपने आवास से बाहर निकलते ही पेड़ों के पत्तों में छिपे रहते हैं। इस दौरान पेड़ों पर पत्ते काफी कम हो जाते हैं जिससे इसके छिपने की ज्यादा जगह नहीं मिलती है।
महुए व बड़े पेड़ों के संवर्धन की जरूरत सेवानिवृत्त उप वन संरक्षक पीसी जैन का मानना है कि उडऩ गिलहरी अधिकतर महुए के पेड़ों को बसेरा बनाती है। समय के साथ पुराने पेड़ खत्म हो रहे हैं। साथ ही अभयारण्यों में बढ़ती खेती के लिए बड़े पेड़ काटे जा रहे हैं। ऐसे में महुए की पौध तैयार कर उसके बड़े पेड़ों बनने तक संवर्धन व संरक्षण की जरूरत है।