मेवाड़ में रियासत काल के दौरान बड़ी संख्या में बाघ थे। जंगलों में बनी शिकार औदिया, महलों व अन्य इमारतों पर प्राचीन भित्ति चित्रों आदि के आधार पर यह कहा जा सकता है कि तब इस क्षेत्र के सघन जंगलों में बड़ी तादाद में बाघ थे। इनके शिकार (भोजन ) के लिए सांभर, चीतल और अन्य वन्यजीव भी पर्याप्त संख्या में थे। इसके मद्देनजर वन विभाग ने कुंभलगढ़ व रावली टाडगढ़ अभयारण्य में बाघों को पुनस्र्थापित करने का प्रस्ताव बनाकर गत माह मंजूरी के लिए राज्य सरकार को भिजवाया। अब इस पर उच्च स्तरीय मंथन शुरू हो गया है।
सरकार के निर्णय के बाद नेशनल टाइगर कंजर्वेशन अथॉरिटी (एनटीसीए)
NTCA की टीम यहां आकर सर्वे करेगी कि बाघों के लिए अभयारण्य कितना उपयुक्त और संरक्षित है। इधर, टी-24 को कुंभलगढ़ अभयारण्य के महुड़ी खेत में 400 हेक्टेयर भूमि में एनक्लोजर बनाना प्रस्तावित है। इसमें एक छोटा व बड़ा एनकलोजर बनाया जाएगा। एनक्लोजर में टी-24 के भोजन के लिए चीतल, सांभर भी छोड़े जाएंगे ताकि वह स्वयं भोजन ग्रहण की आदत डाल सके।
रणथम्भौर में बाघों की संख्या बढ़ी रणथम्भौर
Ranthambore में जिस तरह से बाघों की संख्या बढ़ रही है। ऐसे में भविष्य में बाघों को अन्यत्र शिफ्ट करने की योजना है। दो माह पूर्व जयपुर में एक राष्ट्रीय कार्यशाला में बाघों को मेवाड़ में शिफ्ट करने पर चर्चा हुई थी, जिसमें कुंभलगढ़ व रावली टाडगढ़़ अभयारण्य में बाघ छोडऩे पर मैराथन मंथन हुआ था। बाद में विभाग ने प्रस्ताव बनाकर भेजा। कार्यशाला में तत्कालीन मुख्य वन संरक्षक वन्यजीव राहुल भटनागर ने मेवाड़ में बाघ लाने को लेकर प्रजेन्टेंशन दिया था। इसमें मेवाड़ के अभयारण्य में बाघ छोडऩे एवं रियासत काल में बाघों की मौजूदगी के बारे में जानकारी दी थी।
बाघ लाने की यह है गणित भटनागर ने बताया कि अरावली हिल्स में रावली टाडगढ़, कुंभलगढ़, कोटड़ा, पानरवा, ओगणा, मामेर, जुड़ा, नैनबारा, रूपनगर, सेवंत्री, फुलवारी की नाल, जयसमंद, बाघदड़ा, नाहरा मगरा के अलावा भैंसरोडगढ़, बस्सी, मांड़लगढ़ के जंगलों में रियासत काल के दौरान बड़ी संख्या में बाघ थे। इसके अलावा बनास व ब्राह्मणी नदी के किनारे जंगलों में भी बाघों की शरण स्थली थी। रावली टाडगढ़ रेस्ट हाउस के अतिथि रजिस्टर में 1932 से 1960 के दशक तक बाघों के शिकार का रिकार्ड दर्ज है। सेवानिवृत्त उप वन संरक्षक प्रतापङ्क्षसह चुण्ड़ावत ने बताया कि 1955 तक मेवाड़ में 50 से 60 तक बाघों की संख्या थी। 1970 तक बाघों की इस अंचल में मौजूदगी दर्ज की गई। 1993 में डूंगरपुर जिले के सीमलवाड़ा क्षेत्र के पीठ कस्बे में अंतिम बार बाघ देखा गया था, जो गांव में घुसने पर ग्रामीणों के हाथों मारा गया था।
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अब भी पकड़ से दूर पैंथर मेवाड़ में बाघ लुप्त होने के कारणसेवानिवृत्त वन अधिकारी सतीश शर्मा के अनुसार वर्ष 1900 से 1901 में छपनिया अकाल पड़ा था। उस कालखण्ड़ में मेवाड़ के घने अभयारण्यों में पेड़-पौधे खत्म हो गए। जंगलों में जानवरों के लिए पीने का पानी, हरियाली व शाकाहारी जानवर नष्ट हो गए। टाइगर के लिए भोजन के रूप में सांभर, चीतल व अन्य जानवर खत्म होने के साथ ही टाइगर और अन्य वन्यजीवों का भी खात्मा हो गया। यही बाघ के लुप्त होने का प्रमुख कारण रहे है।
जल्द ही नेशनल पार्क की अधिसूचना कुंभलगढ़ वन्यजीव अभयारण्य के उप वन संरक्षक फतहिसिंह राठौड़ ने बताया कि कुंभलगढ़ व रावली टाडगढ़ वन्यजीव अभयारण्य में बाघ लाने के प्रस्ताव पूर्व में ही भेजे जा चुके हैं। सरकार व विभाग को मेवाड़ में रियासत काल में बाघों की मौजूदगी के बारे में सारे तथ्य उपलब्ध कराए गए। साथ ही नेशनल पार्क बनाने की प्रक्रिया पूरी हो गई है। कुछ कानूनी प्रक्रियाएं पूरी होने के बाद जल्द ही नेशनल पार्क की अंतिम अधिसूचना भी जारी हो जाएगी।