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जलझूलनी एकादशी : शाही लवाजमे के साथ उदयपुर में आज निकलेगी ठाकुरजी की सवारी

locationउदयपुरPublished: Sep 19, 2018 11:14:07 pm

Submitted by:

madhulika singh

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जलझूलनी एकादशी : शाही लवाजमे के साथ उदयपुर में आज निकलेगी ठाकुरजी की सवारी

धीरेंद्र जोशी/उदयपुर. शहर में शताब्दियों से जलझूलनी एकादशी मनाई जा रही है। इसके तहत विभिन्न समाजों के मंदिरों से ठाकुरजी शाही लवाजमे के साथ पालकियों में विराजित होकर निकलेंगे। वक्त के साथ सिमट रहे पर्व एवं त्यौहारों के प्रति वर्तमान समय में युवाओं का रुझान बढ़ा है। इस पर्व को लेकर भी युवा काफी उत्साहित है।
जलझूलनी एकादशी पर शहर के विभिन्न समाजों और मंदिरों की बैवाण निकाली जाती है। यह बैवाण मंदिरों से दोपहर बाद निकाली जाएगी। इसको लेकिर विभिन्न समाजों के मंदिरों में बुजुर्गों के मार्गदर्शन में युवा तैयारियों में जुटे हुए हैं। ये युवा इस पर्व को लेकर निकलने वाली शोभायात्रा की गत कई दिनों से तैयारी कर रहे हैं। इसके तहत बैवाण की साफ-सफाई, मरम्मत के साथ ही ठाकुरजी के गहने, कपड़े, लाव-लश्कर की देखरेख सहित अन्य कई प्रकार के काम किए जा रहे हैं।
जुड़ रहे हैं युवा
मैढ़ क्षत्रिय स्वर्णकार समाज के संगठन मंत्री के गोविंद सोनी ने बताया कि कुछ वर्षों पूर्व रामरेवाड़ी के आयोजन में बुजुर्ग लोग ही भाग लेते थे। वर्तमान समय में इस आयोजन के प्रति युवाओं की रुझान बढ़ा है। युवा इस पर्व की लंबे समय से तैयारियां कर रहे हैं। वे पर्व के दिन भी बढ़चढ़कर इसमें भाग लेने लगे हैं।
सोशियल मीडिया से बढ़ा रुझान
किशन सोनी ने बताया कि सोशियल मीडिया से युवाओं को विभिन्न पर्वों और त्यौहारों की जानकारी समय पर मिल जाती है। एेसे में युवाओं का रुझान भी धार्मिक पर्वों की ओर बढऩे लगा है। जलझूलनी एकादशी की तैयारियों के साथ ही युवा इस दिन निकलने वाली शोभायात्रा में भी उत्साह से भाग लेते हैं।
मिलता है सुकून
अरविंद सोनी ने बताया कि पर्व एवं त्यौहारों में भागीदारी करने से मुझे काफी सुकून मिलता है। इसलिए मैं जब भी समय मिलता है धार्मिक आयोजनों मंे भाग लेता हूं।

समाज से सीधा जुड़ाव
विजय प्रकाश श्रीमाली ने बताया कि धार्मिक आयोजनों में बचपन से ही भागीदारी होनी चाहिए। इससे समाज से जुड़ाव बढ़ता है साथ ही धार्मिक परंपराओं की थी पूरी जानकारी मिलती है।
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सीखने को मिलती है परंपराएं
ललितसिंह सिसोदिया ने बताया कि युवा पीढ़ी की भागीदारी से ही किसी भी परंपरा को जीवित रखा जा सकता है। जहां तक संभव होता है मैं भी धार्मिक आयोजनों में भाग लेता हूं। इससे परंपराओं की कई छोटी-छोटी बाते सीखी जा सकती है।
खिलाडि़यों को मिलता है प्रोत्साहन
राष्ट्रीय कुश्ती पहलवान हेमंत अठवाल ने बताया कि धार्मिक आयोजनों में अखाड़ा प्रदर्शन और अन्य कलाओं को प्रदर्शित करने का मौका भी मिलता है। एेसे में कलाकारों और खिलाडि़यों को भी प्रोत्साहन मिलता है।
पहलवानों में भरता है जोश
कुश्ती कोच हरीश राजोरा ने बताया कि जलझूलनी एकादशी का पर्व पारंपरिक अखाड़ा पहलवानों में जोश भरता हैं। इस पर्व पर आयोजनों के दौरान पहलवानों को भी अखाड़ों के बाहर प्रदर्शन करने का मौका मिलता है। इससे खिलाडि़यों मंे नई ताजगी आती है।
परंपराएं रहेंगी जीवंत
देवेंद्र सिंह चूंडावत ने बताया कि पर्वों से युवाओं का जुड़ाव होना परंपराओं को विलुप्त होने से बचाना है। गत कुछ वर्षों से युवाओं की भागीदारी धार्मिक आयोजनों के प्रति बढ़ी है। एेसे में कई परंपराएं भी लंबे समय तक जीवंत रह सकेंगी।
युवाओं को लेना चाहिए भाग
हेमंत सोनी ने बताया कि बुजुर्गों के सान्निध्य में धार्मिक आयोजनों में भाग लेने से कई एेसी जानकारियां सामने आती है जो हमें पता ही नहीं होती। एेसे में युवाओं को सभी आयोजनों में भाग लेना चाहिए।
पहलवानों में होते थे कंपीटिशन
उस्ताद अर्जुन राजोरा ने बताया कि जलझूलनी एकादशी की शोभायात्रा में वक्त के साथ कुछ परिवर्तन हुए हैं। एक समय था कि शहर के विभिन्न अखाड़ों के पहलवान अलग-अलग मंदिर की शोभायात्रा के साथ गणगौर घाट पहुंचते थे। जब दो अखाड़ों के पहलवान सामने आते थे तो उस समय उस्ताद और पहलवानों द्वारा प्रदर्शन कर लट्ठ, बल्लम, तलवार, मुद्गल आदि नीचे रख दिया जाता था। इसका मतलब यह होता था कि मुझसे अच्छा कोई प्रदर्शन कर सकता है तो करके दिखाए। इसके बाद अन्य अखाड़ों के उस्तार और पहलवान भी वही प्रदर्शन दोहराते हुए पहले से अच्छा करने की कोशिश करते थे। यह स्वस्थ्य प्रतिस्पर्धा होने के साथ ही दर्शकों और पहलवानों का उत्साह भी बढ़ाती थी। लेकिन आज के समय में सरकार ओर प्रशासनिक उदासीनता के चलते अखाड़ा प्रदर्शनकी परंपरा धीरे-धीरे विलुप्त हो रही है।
क्यों मनाते हैं पर्व
पंडित जगदीश दीवाकर ने बताया कि जलझूलनी एकादशी को वामन एकादशी और परिवर्तिनी एकादशी या डोल ग्यारस के नामों से जाना जाता है। कहा जाता है कि इस एकादशी के दिन भगवान विष्णु देवशयन में अपनी करवट बदलते हैं। इसी दिन माता यशोदा का जलवा पूजा तथा भगवान कृष्ण के कपड़े पहली बार धोए थे। सूरज पूजन या कुआं पूजन का जो विधान है इसी दिन हुआ था। यह पर्व उसी का एक रूप है। इसीलिये सभी जगहों गांव-शहर जहां भी मंदिर है वहां से शोभायात्रा के रूप में भगवान को मंदिर से पालकी में शाम के वक्त जलाशय पर ले जाकर जल की पूजन करते हैं। इस अवसर पर भगवान को जल में झुलाते हैं। फिर पूजन-अर्चन कर पुन: मंदिर पर लाकर पूजा की जाती है।
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