शर्मा का यह सफर 17 साल का है। पहले स्वयंसेवी संस्था में थे, लेकिन खेती की ओर रुझान ने नौकरी नहीं करने दी। खेती के शुरुआती दौर में ही पारंपरिक खेती रास नहीं आई। नवाचार शुरू किए। कई बार नाकामियां हाथ लगी, लेकिन लक्ष्य नहीं बदला। पहले उड़द बोया। फिर साल 2001 में काथौड़ी समुदाय के लोगों को जंगलों से सफेद मूसली लाकर बेचते देख इसी की खेती करने का मानस बनाया। उसी साल जुलाई में शर्मा पानरवा वन रेंज में धरावण के जंगलों से मूसली के पांच हजार पौधे ले आए, जिन्हें अपने खेतों में रोपा। इन्हीं की जड़ों से अगले साल बुवाई शुरू की। चार दिन बाद ही बीजों के साथ ही नवाचार का भी अंकुरण हो गया। अगले ही साल शर्मा को 80 हजार की अतिरिक्त आमदनी हुई। फिर इस किसान ने पलटकर नहीं देखा। सफेद मूसली की खेती को दूसरे किसानों तक पहुंचाने के प्रयास शुरू किए। उनके प्रयासों का नतीजा है कि इस साल तहसील क्षेत्र के 3500 किसानों ने 13 करोड़ से ज्यादा की मूसली उपजा ली है।
मूसली के कैप्सूल बनाकर बेच रहे सफेद मूसली की खेती शुरू करने के बाद दस साल तक शर्मा फसल बाजार में बेच रहे थे। फिर कदम बढ़ाया और वर्ष 2012 में मूसली के कैप्सूल बनाकर बेचना शुरू किया। काम ने रफ्तार ऐसी पकड़ी कि आज इससे हर साल सवा लाख से भी ज्यादा कैप्सूल बेचकर करीब ढाई लाख रुपए व इसके अतिरिक्त दो क्विंटल से ज्यादा सूखी मूसली सीधे बाजार में बेच तीन लाख की कमाई कर रहे हैं। वह अपने खेतों में स्ट्रॉबेरी, आंवला, साबुदाने के पौधे सहित अन्य कई किस्में उगा रहे हैं।