वह बताते हैं, सप्ताह में 80 घंटे काम के तय हैं। सामान्य दिनों के मुकाबले दबाव और खतरा ज्यादा है। कई प्रकार के संक्रमण के खतरे के चलते पहले भी ड्यूटी पर गाउन पहनते थे, लेकिन अब पीपीइ पहननकर काम करना मुश्किल है। पाली में उनकी मां और अन्य परिजन रहते हैं। पूरा गांव उनकी फिक्र करता है। लोग मां से बेटे की खैर-खबर लेते हैं। अपनापन दोनों तरफ से इतना कि ड्यूटी के बीच भी उनके गांव में कोई बीमार हो तो उसकी पर्ची और जांच रिपोर्ट वॉट्सअप पर मंगवाकर डॉ. ध्रुव उन्हें जरूरी दवा और सलाह लिखते हैं। डॉ. ध्रुव बताते हैं कि अमरीका के मरीजों में कोरोना का जबरदस्त डर और अनिश्चितता है। महामारी से पहले मरीज हंसी-खुशी और मजाक करते थे, अब तनावग्रस्त और डरा हुआ चेहरा लेकर आ रहे हैं। खतरे के बीच किसी के परिवार के साथ साथ आने के लिए मना करने पर वे कई बार चिढ़ भी जाते हैं। उन्होंने बताया कि यूएस में मेडिकल उपकरण, आइसीयू, प्रशिक्षित स्टॉफ, वेंटीलेटर्स, स्पेशलिस्ट, क्रिटिकल केयर यूनिस्ट्स और कार्डियोलॉजी यूनिट्स में पर्याप्त सुविधाएं हैं, लेकिन लोग अब खुद ही खतरे को भांपकर सोशल डिस्टेंसिंग बनाने लगे हैं। वह बताते हैं कि भारत में स्वास्थ्य सुविधाओं में बेहतरी की काफी गुंजाइश है। उपकरण कम हैं, मेडिकल स्टॉफ में कौन क्या है, क्या जिम्मेदारी है, इसका पता नहीं चलता। खासकर, गांवों में पर्याप्त सुविधाएं नहीं हैं। डॉ. ध्रुव उसके उदाहरण में खुद की शादी में काकी के बीमार होने आपातकालीन सुविधाएं नहीं मिल पाने की घटना का जिक्र करते हैं।
– राजनीतिक नेतृत्व को मानते हैं भारतीय
धु्रव ने बताया कि भारत में सरकारों के निर्देश को लोगों ने माना, इसलिए संक्रमण नियंत्रण में रहा, मौतें भी काफी कम हैं। लोगों ने खुद को आइसोलेशन में रखा। इसके उलट अमरीका में हर स्तर पर स्वतंत्रता के आदी समुदाय ने प्रशासन के निर्देशों को गम्भीरता से नहीं लिया। लोगों को समझाना मुश्किल है। आप जानलेवा वायरस को कम नहीं आंक सकते। लोग मेडिकल एक्सपट्र्स की चेतावनियों को नजरअंदाज करते हैं। एक और दिलचस्प बात डॉ. धु्रव बताते हैं कि राष्ट्रपति टम्प अक्सर चीन पर वायरस फैलाने के आरोप लगाते हैं, लेकिन अमरीका के ज्यादातर लोग इसे सच नहीं मानते।