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बदलाव: बुजुर्गों को उदास कर रहे हैं, फीके होते होली के रंग न हंसी-ठिठोली, न रंग-चंग और हुड़दंग, कुछ नहीं, काहे का ‘फाग’

locationउदयपुरPublished: Mar 16, 2019 12:54:27 pm

बदलाव: बुजुर्गों को उदास कर रहे हैं, फीके होते होली के रंग
न हंसी-ठिठोली, न रंग-चंग और हुड़दंग, कुछ नहीं, काहे का ‘फाग’
 

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बदलाव: बुजुर्गों को उदास कर रहे हैं, फीके होते होली के रंग न हंसी-ठिठोली, न रंग-चंग और हुड़दंग, कुछ नहीं, काहे का ‘फाग’

प्रमोद सोनी
उदयपुर. फाल्गुन की मस्ती का नजारा अब गुजरे जमाने की बात हो गई है। कुछ सालों से फीके पड़ते होली के रंग अब उदास कर रहे हैं। शहर के बुजुर्गों का कहना है कि ‘ न हंसी- ठिठोली, न हुड़दंग, न रंग, न ढप और न भंग’ ऐसा क्या फाल्गुन? न पानी से भरी ‘खेळी’ और न ही होली का …..रे का शोर। अब कुछ नहीं, कुछ घंटों की रंग-गुलाल के बाद सब कुछ शांत। होली की मस्ती में अब वो रंग नहीं रहे। आओ राधे खेला फाग होली आई….ताम्बा पीतल का मटका भरवा दो…सोना रुपाली लाओ पिचकारी…के स्वर धीरे धीरे धीमे हो गए हैं।

पहले यों था

फाल्गुन लगते ही शहर में होली का हुड़दंग शुरू हो जाता था। मंदिरों में भी फाल्गुन आते ही ‘फाग’ शुरू हो जाता था। होली के लोकगीत गूंजते थे। शाम होते ही ढप-चंग के साथ जगह-जगह फाग के गीतों पर पारंपरिक नृत्य की छटा होली के रंग बिखेरती थी। होली खेलते समय पानी की खेली में लोगों को पकडक़र डाल दिया जाता था। कोई नाराजगी नहीं, सब कुछ खुशी-खुशी होता था। वसन्त पंचमी से होली की तैयारियां करते थे। चौराहो पर समाज के नोहरे व मंदिरों में चंग की थाप के साथ होली के गीत गूंजते। बापू बाजार में रात को चंग की थाप पर गैर नृत्य का आकर्षण था। बाहर से फाल्गुन के गीत व रसिया गाने वाले यहां रात में होली की मस्ती में गैर नृत्य करते थे।
अब तो यह है


मनोरंजन के अन्य साधानों के चलते लोगों की परंपरागत लोक त्यौहारों के प्रति रुचि कम हुई है। इसका कारण लोगों के पास समय कम होना है। होली आने में महज कुछ ही दिन शेष हैं, लेकिन शहर में होली के रंग कहीं नजर नहीं आ रहे हैं। एक माह तो दूर रहा अब तो होली की मस्ती एक-दो दिन भी नहीं रही। मात्र आधे दिन में यह त्योहार सिमट गया है। रंग-गुलाल लगाया और हो गई होली।

इन बुजुर्गों का अब मन होता है उदास
85 वर्षीय धापू बाई के अनुसार होली रोपण के बाद से होली की मस्ती शुरू हो जाती थी। छोटी बच्चियां गोबर से होली के लिए वलुडिये बनाती थी। उसमें गोबर के गहने, नारियल, पायल, बिछियां आदि बनाकर माला बनाती थी। अब यह सब नजर नही आता है। होली से पूर्व घरों में टेशु व पलाश के फूलों को पीस कर रंग बनाते थे। महिलाएं होली के गीत गाती थी। होली के दिन गोठ भी होती थी जिसमें चंग की थाप पर होली के गीत गाते थे।
80 वर्षीय भंवर लाल टेलर बताते है कि होली रोपण से पूर्व बसंत पंचमी से फाग के गीत गूंजने लगते थे। आज के समय कुछ मंदिरों में ही होली के गीत सुनाई देते हैं। होली के दिन कई समाज के लोग सामूहिक होली खेलने निकलते थे। साथ में ढोलक व चंग बजाई जाती थी, अब वह मस्ती-हुड़दंग कहां?
75 वर्षीय दामोदर सोनी के अनुसार जब वह छोटे थे तब होली जलने से पूर्व ही गुलाल उडने लगती थी। रंग बिरंगी गुलाल के साथ ही पक्का गुलाबी रंग एक दूसरे के लगाते थे जो तीन चाार दिन तक होली का यह रंग नही उतरता था। उस वक्त होली के रंग के मजे आते थे। लेकिन समय के साथ साथ यह सब कम हो गया। अब लोग आधे दिन होली खेलते है। पहले लोग दो तीन दिन तक रंग में रंगे रहते थे।
पंडितजी कहिन
पं. योगेश पंड्या बताते है कि होली के रंग में अब वो रंग नही है जो पहले थे। सामूहिक रूप से होली खेली जाती थी। एक माह पूर्व ही फाल्गुन का अहसास होता। अब समय के साथ बदलाव आया है। यहां लक्ष्मीनारायण मंदिर में रोज चंग के साथ फाग के गीत गाते हैं, लेकिन अब वो अहसास नहीं।
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