राजस्थान पत्रिका टीम ने महिला दिवस पर निराश्रित गृह व कस्तूरबा छात्रावास को टटोला तो यहां से निकली कई बच्चियों के दर्द भरी दास्तां के बीच सक्षम बनने की कहानी सामने आई। बचपन ने अपनों को खोने के बाद निराश्रित गृह में पहुंची कुछ बच्चियां तो संस्थान को ही अपना घर व स्टॉफ को मां-बाप समझकर आज भी यहां मिलने आती है। संस्थान के अर्जिता पण्ड्या ने बताया कि अभी वर्तमान सीडब्ल्यूसी के माध्यम से लगातार निराश्रित बच्चियां संस्थान में आ रही है। वर्तमान में संभाग की 58 निराश्रित बच्चियां उनके पास है तो कस्तूरबा छात्रावास में 50 से ज्यादा गरीब बच्चियां अध्यनरत है।
घर की छत्रछाया मिली : निराश्रितगृह व छात्रावास में अधिकांश संभाग की आदिवासी बहुल इलाके की बच्चियां होने से वे आपस में इतनी हिल मिल गई कि उन्हें अपनों की कभी याद नहीं आई। यहां का स्टॉफ इनके मां-बाप बनकर इनके साथ रहते है। अध्ययन के साथ-साथ बच्चियों को वे खेल, जॉब व अन्य तरीके की जानकारियां देते है। बचपन में मां-बाप के प्यार से महरूम हो गई थीं तो घर और अपनों के प्यार से अनजान थीं। ऐसी बेटियों को संस्थान में घर की छत्रछाया मिली बल्कि अपनों का भरपूर प्यार-दुलार भी मिला।
पुलिस सेवा में जाने के बाद कई बच्चियों को यहां लाई
कस्तूरबा छात्रावास में पढ़ी महिला कांस्टेबल सुमित्रा रोत ने बताया कि उसके गांव मोथली (खेरवाड़ा) में बालिका के लिए अलग से कोई स्कूल नहीं होने पर वह कक्षा 9 में यहां महिला मंडल छात्रावास में आ गई। यहां 12वीं तक पढऩे के बाद कॉलेज में प्रवेश लिया। उसी समय पुलिस भर्ती में आवेदन भरा तो उसका चयन हो गया।
एक का विवाह भी करवाया : संस्थान ने एक निराश्रित बालिका को पढ़ा लिखा कर समक्ष कर उसका ब्याह भी रचाया। आज यह बालिका अपना मायका समझकर संस्थान में यदा-कदा मिलने आती है।