पक्षीविद् डॉ. सतीश कुमार शर्मा कहते है कि गौरेया शहरी क्षेत्र की बजाय ग्रामीण क्षेत्र में ही रहती थी लेकिन अब वहां भी उसका आशियाना बर्बाद हो गया है। डॉ. शर्मा कहते है कि ग्रामीण क्षेत्र में कच्चे घरों के अंदर और बाहर पेड़ों पर अपने घोंसले बनाती थी लेकिन अब बहुत कुछ बदल गया है। गांवों में कच्चे घर पक्के में बदल गए हैं और पेड़ों का विनाश भी गौरेया के विनाश का कारण बन गया। डॉ. शर्मा के अनुसार उस दौर में गौरेया के साथ इंसान का बहुत प्यार था।
– गौरेया पर डाक टिकट भी जारी किया गया। – यह किसान का मित्र है, प्रकृति में इसका बड़ा रोल है और खेती को इससे सीधा लाभ है। – प्रकृति के संरक्षण के लिए भी गौरेया का होना बहुत जरूरी है।
– गौरेया आठ से दस फीट ऊंचाई पर घरों की दरारों, छेदों व छोटी झाडिय़ों में घोंसला बनाती है। ऐसे कम होते गई गौरेया – गांवों में कच्चे घर पक्के मकान में बदले तो घोंसले की जगह
नहीं बची। – पेड़ों के कटने से उनका आशियाना ही खत्म हो गया। – गांवों में पक्की सड़कों से आए दिन गौरेया के बच्चे हादसे में मारे जाते हैं। – कीटनाशकों के बढ़े प्रयोग से उनकी दुनिया ही उजड़ गई।
संरक्षण ऐसे होगा – इसके आवास को बचाना होगा। – कीटनशाक वाले बीज इनको खाने के लिए नहीं डाले। – गांवों के आसपास के वेट्लैंड को बचाना होगा। – बबूल व कांटेदार पेड़ों को बचाना होगा जहां घोंसला बनाती है।
– ऐसे पेड़ों पर बाज से बच्चों की रक्षा की जा सके। – प्यास बुझाने के लिए पानी के परेण्डे सड़कों के पास नहीं बनाए। – चुग्गा स्थल कीटनाशक से मुक्त हो और सड़े हुए दाने नहीं डाले।