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आखिर कहां खो गए गांव 2 : गांव क्या है? एक साल बाद मेरे सवाल के एकदम करीब हूं..

locationउदयपुरPublished: Jul 19, 2018 10:42:58 pm

Submitted by:

madhulika singh

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shakti

आखिर कहां खो गए गांव 2 : गांव क्या है? एक साल बाद मेरे सवाल के एकदम करीब हूं..

गांव और शहर। मेरा मानना है कि नजर और नजरिया, दो अलग-अलग बातें होती है। आज के समय में शहर को देखने के लिए तो नजर की जरूरत होती है पर हमें ग्रामीण भारत देखना है तो नजर और नजरिये दोनों की जरूरत पड़ती है। दिल्ली विश्वविद्यालय से पढ़ाई की है। ग्रामीण भारत को जानने व समझने की तमन्ना लिए मैंने गांधी फेलोशिप जॉइन किया। जिसमें हमें गांवों में रहना, सरकारी विद्यालयों में काम करना, आदिवासी समाज की संस्कृति-रीति रिवाजों को समझना होता है। वहां के उपलब्ध संसाधनों के अनुसार उनके जीवन स्तर में सुधार लाने का प्रयास करते हैं।
उदयपुर शहर के आदिवासी इलाकों में काम करते लगभग एक साल पूरा हो गया। इस अवधि के बाद मैं आज खड़ा हूं अपने सवाल के जवाब के थोड़ा करीब। आप सभी युवाओं को बता दूं कि मेरे इसी फेलोशिप के दौरान हमें खुद एक गांव में जाकर उसी गांव के किसी एक परिवार के साथ रहना होता है। पर हमें किसी भी प्रकार का आर्थिक सहयोग उस परिवार को नहीं देना होता है।
इस समय मैं इसी प्रोसेस के तहत राष्ट्रीय राजमार्ग 8 पर बसे उदयपुर से लगभग 25 किलोमीटर दूर बारापाल ग्राम पंचायत में रह रहा हूं, जहां पानी, रोजगार और उच्च शिक्षा की बेहद समस्या है। सरकारी विद्यालयों में बच्चे स्कूल तो आते हैं पर उनका जीवन सुबह पानी भरने से शुरू होकर शाम को खेत से खत्म हो जाता है। उनके भविष्य किसी भी कलम से लेख नहीं लिखा जा सकता। शायद तीसरी कक्षा में पढऩे वाली बच्ची जब वो कोमल पैर शाम को मवेशियों को तीन किलोमीटर से कंक्रीट वाली पहाड़ी चढकऱ लाने जाती है। उसके पैरों में चप्पल तक नहीं होती है। उस दर्द के आगे शब्दों की सारी सीमाएं खत्म हो जाती है।
यहां एक प्रयोग मैं कर रहा हूं कि गांव के ही कुछ पढ़े लिखे युवा और कुछ उसी समुदाय के लोग जो सरकारी नौकरियों में हैं। उनको स्कूल के पैरेंट्स-टीचर मीटिंग में आमंत्रित किया जाए। उन्हीं युवाओं और सरकारी नौकरियों में कार्यरत लोगों से एक योजना और शिक्षा की गुणवत्ता के बारे में बताया जाए। जिससे वो जिस पद पर हैं वो वहां कैसे पहुँचे और कितनी कठिनाइयां हुईं। लोकल भाषा में बातचीत मददगार होगी।
इसी के साथ साथ साथ हमारी फेलोशिप की टीम ने एक मुहिम भी शुरू की है। जिसका नाम कलर्स ऑफ नॉलेज है। इसमें हम सरकारी स्कूलों की दीवारों को रंगों के ज्ञान बिखरने की कोशिश कर रहे हैं तो आप सभी युवाओं से यह अपील है कि आप भी हमारी इस मुहिम से जुड़े। जिससे आप के शहर और उसके सरकारी विद्यालयों के बच्चों को बेहतर शिक्षा और आधुनिक तरीके से सीखने के लिए प्रेरित करें।
– शक्ति सत्या, गांधी फैलोशिप

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