वर्ष 1971 में भारत व पाकिस्तान के बीच हुए युद्ध और इसमें भारत की जीत को १६ दिसंबर को बांग्लादेश विजयी दिवस के रूप में मनाया जाता है। शहर में भी कुछ एेसे सेवानिवृत्त सैनिक हैं, जिन्होंने तब अपने देश के लिए पाकिस्तानी सेना से न सिर्फ लोहा लिया बल्कि युद्ध में उनके दांत भी खट्टे किए। उन्हीं में से एक है गणेशनगर निवासी 71 वर्षीय सेवानिवृत्त नायब ध्रुवसिंह चौहान। बांग्लादेश विजय दिवस पर पत्रिका ने उनसे विशेष चर्चा में जाना, किस तरह भारतीय सेना ने पाकिस्तान को युद्ध में धूल चटाई थी।
पाकिस्तान को पीछे खींचना पड़े थे कदम
1971 के युद्ध के सवाल पर धु्रवसिंह गर्व से कहते हैं, तब मैं 25-26 वर्ष का था और मेरी पोस्टिंग जेसलमेर लोंगेवाला बॉर्डर पर थी। इस क्षेत्र में पश्चिम पाकिस्तान का हिस्सा लगता था। युद्ध का अधिक असर पूर्वी पाकिस्तान में था लेकिन पश्चिमी क्षेत्र में भी सेनाएं आमने-सामनें थी। मैं इंजीनियरिंग ग्रुप में था। हमारी जिम्मेदारी बॉर्डर पर माइन्स बिछाने की थी ताकि दुश्मनों की फौज व टैंकर सीमा में न घुस सके। हमारे ग्रुप ने 10 किमी तक दो तरीके के एंटी टैंक व एंटी पर्सनल माइन्स का जाल बिछाया था। जैसे ही दुश्मन इसके दायरे में आए, उनके परखच्चे उड़ गए और घबराकर उन्हें अपने कदम पीछे लेना पड़े। एक तरह रेत में बिछी माइन्स ने दुश्मनों को बढऩे से रोका वहीं हमारी सेना के जवाबी हमलों ने दुश्मनों के हौसले पस्त कर दिए थे।
एक महीने तक माइन्स निकाली
कुछ दिनों के युद्ध के बाद पाकिस्तान की करारी हार हुई और उनके 90 हजार से अधिक सैनिकों को आत्मसर्पण करने पर मजबूर होना पड़ा। यह सभी भारतीय सैनिकों के देशप्रेम की जीत थी। हमारा काम अभी खत्म नहीं हुआ था। युद्ध समाप्त होने के बाद हमें वे माइन्स वापस भी निकालना थी जो युद्ध के दौरान ब्लास्ट नहीं हुई थी। रेत में कई बार माइन्स खिसक जाती है, जिससे उनका स्थान बदल जाता है। एेसे में उन्हें खोजकर निकालने में करीब एक महीना लगा।
दो बेटे भी सेना में, एक शहीद हुए
देश की सुरक्षा और सेवा में धु्रवसिंह ही नहीं उनके बेटों ने भी भागीदारी की है। धु्रवसिंह के छोटे बेटे जितेंद्रसिंह चौहान आर्मी में ही देश की सेवा करते हुए वर्ष 2004 में शहीद हुए हैं। बड़े बेटे धर्मेद्रसिंह चौहान हाल में सेना से रिटायर हुए हैं।