युद्ध की निर्णायक जनता को अब तक यह नहीं पता कि उसे क्षत्रपों, सेनापतियों को तौलना आखिर किस कसौटी पर है। कैसे उनका चुनाव करना है? आखिर किस आधार पर पांच साल के प्रतिनिधित्व का भविष्य उनके हाथों में सौंपना है।
नितिन चावड़ा
नामांकन वापसी की रवायत (परंपरा) पूरी होने के बाद अब मैदान में दोनों सेनाओं के क्षत्रप अपनी सेनाओं के साथ जुट गए हैं। सेनापतियों ने कमर कस ली है। आप तो जानते ही हैं कि युद्ध में नारों का महत्व उत्साह संचार के लिए होता रहा है। अंग्रेजी के शब्द बैटल क्राय यानी नारा, युद्धघोष, सिंहनाद, लड़ाई का नारा, युद्ध का नारा और रणहुंकार जो चुनाव और लड़ाई दोनों में ही सेनाओं की ताकत रहते हैं। इस चुनावी रण में सेनापति नंबर वन-नंबर वन की हुंकार जरूर भर रहे हैं। नंबर वन बनना और बनाना कौन नहीं चाहता है? दावा और नारा दोनों ही आकर्षक लगते हैं, लेकिन कैसे... इसका पुख्ता जवाब किसी भी तरफ से स्पष्ट तौर पर नहीं मिल रहा है। न कोई 'संकल्पÓ दिखा रहा है और न ही कोई 'घोषणाÓ की जा रही है। युद्ध की निर्णायक जनता को अब तक यह नहीं पता कि उसे क्षत्रपों, सेनापतियों को तौलना आखिर किस कसौटी पर है। कैसे उनका चुनाव करना है? आखिर किस आधार पर पांच साल के प्रतिनिधित्व का भविष्य उनके हाथों में सौंपना है। बात सीधे-सीधे कहूं तो मैदान तैयार है, सेनापति-क्षत्रप आ डटे हैं, लेकिन मुद्दे नदारद हैं। इन्हीं मुद्दों या कहें कारणों पर युद्ध किया जाता है। चुनाव लड़ा जाता है। जनता भी मुखर होकर अपनी बात नहीं रख रही है। अपने दर्द को चौपल चर्चा में जाहिर जरूर करती है, लेकिन इसे बातों में ही खत्म कर रही है। दोनों ही दलों के पास अपनी-अपनी दलीलें हैं, लेकिन सार्वजनिक घोषणा में कोई आगे नहीं आ रहा है। बात मुद्दे की करेंगे तो निश्चित ही उज्जैन हर मामले में नंबर वन की दावेदारी कर सकता है। यह स्थिति सिर्फ निकाय चुनाव की नहीं बल्कि पंचायत चुनावों के भी यही हाल हैं। निजी संबंधों का हवाला देकर ही दावेदारी की जा रही है।
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