दृश्य-२ : १५ मई को उज्जैन कलेक्टोरेट में जनसुनवाई के दौरान ग्राम नबेरिया के हेमराज ने झोले से बोतल निकाली और बोला कि मेरी सुनवाई नहीं हो रही। अब मैं जहर पीकर जान दे रहा हूं। हालांकि बाद में पता चला कि बोतल खाली थी।
दृश्य-३ : १५ मई को उज्जैन कलेक्टोरेट में जनसुनवाई के दौरान ६८ वर्षीय वृद्ध एडीएम व एसडीएम के सामने पहुंचते ही फफक-फफकर रो पड़ते हैं। तराना के पास सामानोरा के धुलाजी की पीड़ा है कि वह अपनी जमीन का नामांतरण कराने के लिए विगत पांच साल से आवेदन दे रहे हैं। कोई सुनवाई नहीं हो रही।
जनसुनवाई के ये दृश्य बीते सप्ताह के हैं। ऐसी घटनाएं लगातार हो रही हैं। ज्यादा दूर जाने की जरूरत नहीं। विगत २१ मार्च को उज्जैन कलेक्टोरेट में जनसुनवाई के दौरान एक व्यक्ति ने खुद, पत्नी व मासूम बेटी के बदन पर केरोसिन उड़ेल लिया। वह आग लगाने ही वाला था कि अधिकारियों व कर्मचारियों ने बड़ी मशक्कत के बाद काबू में किया। बडऩगर तहसील के भैसलाखुर्द निवासी मुकेश अपने घर के सामने का रास्ता रसूखदारों द्वारा बंद करने से परेशान है। २२ फरवरी को शाजापुर कलेक्टोरेट में जनसुनवाई के दौरान एक व्यक्ति पेट्रोल की बोतल लेकर पहुंच गया था। उसे भी बमुश्किल काबू में किया गया। ये घटनाएं जनसुनवाई की सफलता को लेकर सरकार व प्रशासन के दावों की पोल खोल रही हैं।
सवाल ये है कि पीडि़त लोग जनसुनवाई के दौरान जान देने पर क्यों उतारू हो रहे हैं? इसका जवाब भी पीडि़तों की व्यथा में छिपा है। सालों साल से शिकायती आवेदन देकर थक चुके लोगों को जब कहीं से उम्मीद की किरण नजर नहीं आती तो हताशा में वे ऐसे कदम उठा रहे हैं, लेकिन दुखद यह है कि जनसुनवाई के दौरान आत्महत्या के प्रयास जैसे कदम उठाने के बाद भी इन फरियादियों की समस्या का निराकरण नहीं हो पाया है। ऐसे में समझा जा सकता है कि जी-हुजूरी तक सीमित फरियादियों के साथ क्या सुलूक होता होगा। दरअसल, जनसुनवाई अब सिर्फ औपचारिकता बनकर रह गई है।
इसमें शक नहीं कि हर मंगलवार को कलेक्टर नियमित रूप से जनसुनवाई कर रहे हैं। इस दौरान आने वाले हरेक आवेदन पर संबंधित विभाग को आवश्यक दिशा-निर्देश दिए जाते हैं। लेकिन मातहत अफसर निर्देशों को गंभीरता से नहीं लेते। इसी का नतीजा है कि जनसुनवाई में अधिकांश ऐसे मामले पहुंच रहे हैं, जो पहले भी आ चुके हैं। अपनी पत्नी व बच्ची के साथ खुद पर केरोसिन उड़ेलकर आत्मदाह की कोशिश करने वाला पीडि़त व्यक्ति समस्या का निदान नहीं होने पर बाद की जनसुनवाई में भी आता रहा, लेकिन जिम्मेदार अफसरों पर कोई फर्क नहीं पड़ा।
अफसरों की लापरवाही व संवेदनहीनता का ही नतीजा है कि जनपद पंचायत कार्यालय में फरियादी जहर खा लेता है। इसके बाद भी जिला पंचायत सीइओ कहते हैं कि उन्हें मामले की जानकारी नहीं है। ऐसा क्यों होता है? क्योंकि न निर्देश का पालन करने वाले को फिक्र है और न ही निर्देश देने वाले को सुध। निर्देशों पर किस अफसर ने कितना अमल किया? इस बारे में कोई व्यवस्था अब तक नहीं दिखाई दी। ऐसे अफसरों से जवाब तलब क्यों नहीं किया जाता? हालत यह है कि कमिश्नर व कलेक्टर की महत्वपूर्ण समीक्षा बैठकों से अफसर गैरहाजिर रहते हैं। जो बैठक में आते हैं, वे गलत जानकारियां देते हैं। गलती पकड़ी जाती है तो बहानेबाजी करते हैं।
दिक्कत यह है कि इसके बाद भी कमिश्नर हो या कलेक्टर सिर्फ मौखिक तल्ख टिप्पणी कर अपनी झेंप मिटा लेते हैं। इस तथ्य को मातहत अफसर भलीभांति समझ चुके हैं कि थोड़ा चिल्ला-चोट होगी। अंतत: होता जाता कुछ नहीं। ऐसे आलम में अफसरशाही मनमानी तो करेगी ही। अफसरों का यह रवैया राज्य सरकार की महत्वाकांक्षी योजनाओं की बलि ले रहा है। जनसुनवाई सिर्फ समय व धन की बर्बादी करवा रही है। कमिश्नर व कलेक्टर को यह समझना पड़ेगा कि जनसुनवाई को सार्थक बनाने की जिम्मेदारी उनकी है।
हर सप्ताह होने वाली जनसुनवाई में आईं शिकायतों के निराकरण और टीएल बैठक के निर्देशों के परिपालन के लिए ठोस व्यवस्था बनानी पड़ेगी। पिछली बैठक में दिए गए निर्देशों पर कितना अमल हुआ? कौन जिम्मेदार है? यह तय करके सख्त रवैया अपनाना पड़ेगा। क्योंकि ‘भय बिन होय न प्रीतÓ। ऐसे अफसरों व कर्मचारियों के खिलाफ सख्त कार्रवाई की जानी चाहिए,जो दिशा-निर्देशों को हवा में उड़ाते हैं। जिम्मेदार आला अफसरों को संवेदनशील बनना पड़ेगा। क्योंकि किसी शायर ने ठीक ही कहा है…
एहसासों की नमी बेहद जरूरी है हर रिश्ते में,
रेत भी सूखी हो तो हाथों से फिसल जाती है।