तिलक उस समय एक युवा क्रांतिकारी और गर्म दल के नेता के रूप में जाने जाते थे। वे एक बहुत ही स्पष्ट वक्ता और प्रभावी ढंग से भाषण देने में माहिर थे। तिलक ‘पूर्ण स्वराज’ की मांग को लेकर संघर्ष कर रहे थे और वे अपनी बात को ज्यादा से ज्यादा लोगों तक पहुंचाना चाहते थे। इसके लिए उन्हें एक ऐसा सार्वजानिक मंच चाहिए था, जहां से उनके विचार अधिकांश लोगों तक पहुंच सके।
तिलक ने गणेशोत्सव को सार्वजनिक महोत्सव का रूप देते समय उसे महज धार्मिक कर्मकांड तक ही सीमित नहीं रखा, बल्कि आजादी की लड़ाई, छुआछूत दूर करने, समाज को संगठित करने के साथ ही उसे एक आंदोलन का स्वरूप दिया, जिसका ब्रिटिश साम्राज्य की नींव को हिलाने में महत्वपूर्ण योगदान रहा। अंग्रेजों की हुकूमत को उखाड़ फेंकने और देश को आज़ादी दिलाने के मकसद से शुरू किए गए गणेशोत्सव ने देखते ही देखते पूरे देश में एक नया आंदोलन छेड़ दिया। अंग्रेजों की पूरी हुकूमत भी इस गणेशोत्सव से घबराने लगी।
मंदिर की देखभाल करने वाले खेमचन्द्र गुप्त ने कहा कि मेरे बाबा के कुछ महाराष्ट्र के व्यापारिक दोस्त थे जो ज्यादातर व्यापार के सिलसिले में गणेश उत्सव के समय कानपुर आया करते थे। इन लोगों की भगवान गणेश में अटूट आस्था थी और वो भी उस समय गणेश महोत्सव के समय घर में ही भगवान गणेश के प्रतिमा की स्थापना कर पूजन करते थे और आखिरी दिन बड़े ही धूमधाम से विसर्जन करते थे। उन दिनों पूरे कानपुर में यहां अकेले गणेश उत्सव मनाया जाता था।
भक्ति को देख इनके महाराष्ट्र के दोस्तों ने उस खाली प्लाट में भगवान गणेश की प्रतिमा को स्थापित कर वहां मंदिर बनवाने का सुझाव दिया था। बाबा रामचरण के पास एक 90 स्क्वॉयर फीट का प्लाट घर के बगल में खाली पड़ा था। जहां इन्होंने मंदिर निर्माण करवाने के लिए 1908 में नींव रखी थी और भूमिपूजन के लिए बालगंगाधर तिलक को बुलाया। वो कानपुर आए और पांडाल में सैकड़ों लोगों को एकत्र कर अंग्रेजों के खिलाफ लड़ाई को धार दी।
अंग्रेज अधिकारी ने वहां गणेश प्रतिमा की स्थापना करने की अनुमति तो दी मगर इस प्लॉट पर मंदिर निर्माण की जगह दो मंजिला घर बनावाने की बात कही। ऊपरी खंड पर भगवान गणेश की मूर्ति स्थापित करने को कहा।