वाराणसी

जानिए पुष्पेंद्र यादव एनकाउंटर को लेकर क्यों इतनी आक्रामक है समाजवादी पार्टी, क्या है अखिलेश यादव की रणनीति…

-Akhilesh Yadav की रणनीति से सपा कार्यकर्ताओं में आया है गजब का उत्साह-पार्टी से जुड़े खास वर्ग के लोगों में फिर से जगी है नई आशा की किरण

वाराणसीOct 15, 2019 / 12:36 pm

Ajay Chaturvedi

अखिलेश यादव

वाराणसी. उत्तर प्रदेश की राजनीति में इस वक्त भाजपा को कड़ी टक्कर देने वाली पार्टी में समाजवादी पार्टी सबसे आगे दिखाई दे रही है। माना जा रहा है कि ऐसा पार्टी प्रमुख Akhilesh Yadav की रणनीति के चलते है। अखिलेश की इस रणनीति से पार्टी में नई जान आती दिख रही है। हालांकि राजनीतिक विश्लेषकों के मुताबिक अखिलेश की इस रणनीति का कितना असर पड़ता है इसका खुलासा हाल में 11 विधानसभाओं में होने वाले उपचुनाव में हो जाएगा। वैसे यह माना जा रहा है कि इस रणनीत से सपा को फायदा होना तय है।
राजनीतिक विश्लेषकों का मानना है कि अखिलेश की रणनीति के परिणा का ही असर रहा कि बाराबंकी चुनाव में पार्टी मजबूती से चुनाव लड़ पाई और भाजपा से थोड़े अंतर से ही हारी थी। सबसे बड़ा राजनीतिक फायदा सपा को यह मिला कि बसपा तीसरे नंबर पर चली गई।
राजनीतिक विश्लेषकों की मानें तो अखिलेश के सिपहसलारों ने उन्हें मुलायम और शिवपाल वाली रणऩीति अख्तियार करते हुए चलने की सलाह दी है। बताया कि उन्हीं रणनीति से अपने वोटबैंक को बचाए रखा जा सकता है। माना जा रहा है कि अखिलेश को यह बात जंची है। उसी के तहत उन्होंने यूपी में अपनी सरगर्मी तेज कर दी है।

सिपहसलारों की सलाह की ही देन है कि सपा ने अपने मूल वोट बैंक यादवों को सहेजने की प्रक्रिया शुरू कर दी है। इसी के तहत पुष्पेंद्र मुठभेड़ कांड के बाद झांसी का दौरा कर उन्होंने सरकार को घेरने के साथ अपना वोटबैंक साधने का भी संदेश दिया है।
इतना ही नहीं यादव पट्टी के मूल वोट को साधने की रणनीति के तहत ही रूठे हुए यादव नेताओं को मानने की कवायद भी शुरू कर दी गई है। इसी कड़ी में आजमगढ़ के पूर्व सांसद रमाकांत यादव को पार्टी में शामिल कराकर पूर्वाचल के यादवों को साधने का एक बड़ा प्रयास किया गया है। रमाकांत 1991 से लेकर 1999 तक सपा से विधायक और सांसद चुने जाते रहे हैं।
इसके अलावा परिवार में एका की कोशिशें भी तेज हो गई हैं। इसके लिए पार्टी का एक धड़ा तेजी से लगा हुआ है, पर वह कितना कामयाब होगा, यह तो वक्त ही बताएगा। लेकिन पार्टी के रणनीतिकारों को यह समझ आने लगा है कि मुस्लिम और यादव का गणित मजबूत करना ही पार्टी के हित में है। वरिष्ठ नेताओं का मानना है कि यादवों में एकता रहेगी तो एम-वाई (मुस्लिम-यादव) समीकरण का रंग भी गाढ़ा हो सकेगा।
हालांकि शिवपाल सिंह यादव के नेतृत्व वाली प्रगतिशील समाजवादी पार्टी (लोहिया) के पैंतरे ने सपाइयों की रणनीति को कुछ गड़बड़ाने की कोशिश जरूर की। इससे अखिलेश की किचेन कैबिनेट जरूर थोड़ा परेशान हुई है। दरअसल अखिलेश के झांसी दौरे से एक दिन पूर्व शिवपाल के पुत्र आदित्य यादव व अन्य नेताओं ने भी पुष्पेंद्र के घर जाकर पीड़ित परिजनों से मुलाकात की थी।
राजनीतिक विश्लेषकों का कहना है कि लोकसभा चुनाव में जिस प्रकार फिरोजाबाद, इटावा, बदायूं, बलिया, जैसी यादव पट्टी की सीटें हारना सपा के लिए बड़ा राजनीतिक संकेत रहा। ये सीटें सपा का गढ़ मानी जाती रही हैं। दरअसल सपा का मूल वोट बैंक इस चुनाव में काफी छिटका। वजह साफ है सपा संरक्षक मुलायम का निष्क्रिय होना और शिवपाल का दूसरी पार्टी बना लेना। ऐसे में अखिलेश अब इसे साधने में लगे हैं। वह एम-वाई कम्बिनेशन को दुरुस्त करने में जुट गए हैं।
राजनीतिक पंडित कहते हैं कि लोकसभा चुनाव में जिस तरह भाजपा को करीब 50 से 51 प्रतिशत का वोट शेयर मिला जिसमें सभी जातियों के वोट समाहित है। भाजपा ने सभी जातियों के वोट बैंक में सेंधमारी की है। लेकिन तमाम कोशिश के भाजपा अभी तक पूरी तरह से दलित कोर वोट जाटव में सेंधमारी नहीं कर पाई है। यही वजह है मायावती की नि
अब अखिलेश के सामने छिटके वोट को अपने पाले में लाना बड़ी चुनौती है। पुष्पेंद्र यादव एनकाउंटर को मुद्दा बना कर पार्टी आक्रमाक हुई है। साथ ही रमाकांत यादव को पार्टी में शामिल किया गया है। माना जाता है कि रमाकांत के पास पूर्वाचल का बड़ा वोट बैंक है। राजनीतिक विश्लेषक कहते हैं कि देर से ही सही पर सपा को यह समझ आने लगी है कि अगर उनका जाति आधारित वोटबैंक खिसक गया तो संगठन को खड़ा कर पाना भी मुश्किल हो जाएगा।यही वजह है कि अखिलेश यादव वोट बैंक को साधने में लग गए हैं।
राजनीतिक पंडितों की माने तो ऐसा लगता है कि अखिलेश के रणनीतिकारों ने उन्हें समझाया है कि मुलायम सिंह एक ऐसे नेता थे, जिन्हें यादव वोटर अपने अभिभावक के तौर में देखते थे। वह हमेशा, हर दृष्टि से यादवों का ख्याल रखते थे। मुलायम के बाद शिवपाल ही थे जिन्होंने बड़े भाई की लकीर को आगे बढ़ाया। यही वजह है कि दोनों को जमीनी नेता माना गया।

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