महंत डॉ तिवारी ने पत्रिका को बताया कि जब मां पार्वती ने बाबा विश्वनाथ को वर के रूप में चुन लिया तो यह तय किया गया कि अब तिलकोत्सव भी होना चाहिए। इसके लिए माघ मास के शुक्ल पक्ष की पंचमी तिथि तय की गई। माना गया कि एक तो आज का दिन माता सरस्वती के पूजन का दिन है। होलिका के लिए आज ही पहली लकडी गाड़ी जाती है। आज से ही नवसंवत्सर की प्रतीक्षा शुरू हो जाती है। ऐसे में इससे बढ़िया दिन हो नहीं सकता काशीपुराधिपति के तिलकोत्सव का। सो करीब 350 साल से यह परंपरा चली आ रही है। उन्होंने बताया कि माघ शुक्ल पक्ष की पंचमी को तिलकोत्सव, फिर फाल्गुन कृष्ण पक्ष में विवाह उसके बाद फिर शुक्ल पक्ष में एकादशी को गौना होता है। बाबा के विवाह के निमित्त पक्ष का ध्यान खास है।
उऩ्होंने बताया कि बाबा की दो प्रतिमा है एक चल जो मेरे पास रहती है और दूसरी अचल प्रतिमा जो बाबा दरबार में है। चल प्रतिमा वर्ष में तीन बार ही मेरे आवास से सज धज कर निकालती है, एक सावन पूर्णिमा को दूसरे महाशिवरात्रि को फिर रंग भरी एकादशी को। वसंत पंचमी के दिन आवास पर ही तिलकोत्सव की रस्म पूरी की जाती है। बाबा का श्रृंगार कर शाम चार बजे तिलकोत्सव होगा। दक्ष प्रजापति के रूप में मैं खुद बैठ कर बाबा के तिलकोत्सव की रस्म निभाऊंगा। लोकमान्यताओं के अनुसार शिवविवाह के पूर्व वसंत पंचमी के दिन दक्ष प्रजापती ने भगवान शंकर का तिलकोत्सव किया था। बाबा की रजत प्रतिमा का विजयायुक्त ठंडई, पंचमेवा, फल व मिष्ठान्न का भोग लगाया जाएगा। उसके बाद आरती होगी। बाबा की इस रजत प्रतिमा की विशेष पूजा महाशिवरात्री तक चलती रहेगी।
शाम को ढोलक, झाल,मजीरा संग गीत गवनई का प्रोग्राम होगा। शिवरात्रि पर शिव विवाह के उपरांत रंगभरी एकादशी पर माता उमा के साथ बाबा का गौना उत्सव मनाया जायगा और बाबा की रजत पालकी के दर्शन होगें। उन्होंने बतया कि अब तीन या चार मार्च को महाशिवरात्रि पड़ेगी जिस दिन बाबा का विवाहोत्सव मनाया जाएगा।
बता दें कि श्री काशी विश्वनाथ का विवाह भी कौमी एकता की मिशाल है। इसमें पार्वती हिंदू तो शिव मुस्लिम संप्रदाय से बनते हैं। बारात महामृत्युंजय महादेव से निकलती है और दशाश्वमेध घाट से पहले विश्वनाथ गली के समीप स्थित गुरु बृहस्पति मंदिर के समीप सजता है विवाह मंडप। वही होती है शादी। बारात में परंपरागत रूप से हर तरह के लोग व विभिन्न वेषधारी मौजूद रहते हैं जैसा कि लोकमान्यता में कहा गया है कि बाबा के विवाह में भूत-प्रेत, फकीर सभी शामिल हुए थे वह परंपरा आज भी काशी में पूरी की जाती है।