1989 में पार्टी के जन्म के बाद से 2007 का साल बसपा के लिए अब तक का स्वर्णिम काल रहा जब पार्टी ने ‘सोशल इंजीनियरिंग’ का सहारा लिया और पहली बार दलितों के साथ सवर्ण वर्ग के प्रत्याशियों को चुनाव मैदान में उतारा। नतीजतन मायावती ने 206 सीटों और 30.43 प्रतिशत वोट के साथ पूर्ण बहुमत से सरकार बनाई। सोशल इंजीनियरिंग का यह फार्मूला 2009 के लोकसभा चुनाव में भी कारगर साबित हुआ और पार्टी ने 27.4 फीसदी वोट के साथ 21 लोकसभा सीटों पर कब्जा जमाया।
लेकिन 2012 आते आते बसपा और मायावती का सोशल इंजीनियरिंग का फार्मूला फेल होने लगा। 2012 के विधानसभा चुनाव में पार्टी महज 80 सीटों पर सिमट गई। यहां तक कि वोट प्रतिशत में भी 05 प्रतिशत की कमी आई और वह घटकर 25.9 प्रतिशत पर पहुंच गया। सबसे खराब रहा तो 2014 लोकसभा चुनाव, जिसे मायावती किसी बुरे सपने सदृश्य जल्द से जल्द भुलाने को बेताब हैं। 2014 में पार्टी का वोट प्रतिसत 20 प्रतिशत पर पहुंच गया। और तो और पार्टी का खाता तक नहीं खुला. यह क्रम 2017 के यूपी विधानसभा चुनावों में भी जारी रहा और मायावती के पोलिटिकल पॉवर पर ही सवाल खड़े होने लगे। बसपा अपने सबसे मजबूत किले में 22.3 फीसदी वोटों के साथ 19 सीटों पर सिमट गई।
दरअसल बसपा को कोई और नही सबसे तगड़ा झटका दिया भाजपा ने। और यह सब एक दिन में यकायक नहीं हुआ। परियड में भाजपा ने दलित वोट बैक में सबसे पहले तगड़ी सेंधमारी की। बात 2007 की है जब बीजेपी ने यूपी विधानसभा चुनावों में 16.97 प्रतिशत के साथ 51 सीटों पर कब्जा जमा लिया। फिर 2012 के विधानसभा चुनावों में सपा की लहर में भी 15 वोट प्रतिशत के साथ 47 सीटें हासिल करने में कामयाब रही। 2014 का लोकसभा चुनाव तो बसपा ही क्या सपा, कांग्रेस के लिए भी वाटरलू साबित हुआ और पार्टी 42.63 प्रतिशत वोटों के साथ 80 में से 71 सीटें जीतकर भारतीय संसदीय प्रणाली में नए युग की शुरूआत की। बीजेपी ने अपना यह कारनाम 2017 में भी जारी रखा और 41.35 प्रतिशत वोट के साथ 325 सीटें हासिल की। बसपा और बीजेपी के बीच दलित वोट बैंक के शिफ्टिंग की कहानी यही है।
लोकसभा चुनाव 2014 में बीएसपी के खाते में एक भी सीट नहीं आने के पीछे मोदी लहर को एक बड़ी वजह बताया जाता है। खासकर यूपी की सभी 17 आरक्षित लोकसभा सीटों पर बीजेपी की जीत को इस नजरिए से देखा जाता रहा है। सिर्फ लोकसभा ही नहीं 2017 विधानसभा चुनावों में भी सुरक्षित 86 सीटों में 76 पर बीजेपी ने ही जीत दर्ज की है। हालांकि रिजर्व सीटों के चुनावी इतिहास को खंगाला जाय तो देखने को मिलता है कि इनमें से 09 सीटें ऐसी हैं जहां बीजेपी हमेशा से ही मजबूत रही है जबकि 03 पर सपा। एक मिश्रित सीट है। पूर्वांचल की बात करें तो लालगंज सीट पर बसपा-सपा के बीच हमेशा ही कड़ा मुकाबला होता रहा है। इससे इतर शाहजहांपुर ऐसी आरक्षित सीट है जिस पर कांग्रेस मजबूत है। नगीना और कौशांबी सीट 2008 के परिसीमन के बाद अस्तित्व में आई हैं, लेकिन यहां भी बीते दो चुनावों में सपा और बीजेपी ने ही जीत दर्ज की है बसपा का खाता खुलना शेष है।
यूपी की दलित राजनीति को समझने के लिए बीजेपी के बढ़ते वोट प्रतिशत समझना होगा। बीजेपी को 2009 के लोकसभा चुनावों में मिले 17. प्रतिशत वोट और 10 सीटों के मुकाबले 2014 में उसे 42.3 प्रतिशत वोट व 71 सीटें मिली। राजनीतिक विश्लेषकों का सवाल है कि 25 प्रतिशत वोट किसका था जो बीजेपी ने हासिल किया? समाजशास्त्री बद्री नारायण अपनी किताब ‘फैसिनेटिंग हिंदुत्वः सैफ़रन पॉलिटिक्स और दलित मोबिलाइजेशन’ में बीजेपी की इसी रणनीति की चर्चा करते हुए बताते है कि दलितों-पिछड़ों के भीतर मौजूद जातीय अंतर्विरोध और जातिवाद के आधार पर अति दलित और अति पिछड़ी जातियों में मौजूद गुस्से और उनके लिए राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ के विशेष कार्यक्रमों का बड़ा योगदान है। वह लिखते हैं कि दलितों के बीच सामाजिक समरसता अभियान के तहत आरएसएस ने उस दलित वोट बैंक पर निशाना साधा जिस पर बीएसपी ने कभी ध्यान ही नहीं दिया था। इसी रणनीति का फायदा बीजेपी को सीधे-सीधे मिला। तक़रीबन 60 गैर-जाटव दलित जातियों को 30 साल पुराने बहुजन आंदोलन में न तो नेतृत्व में जगह मिली, न आवाज़ मिली, न पहचान, न ही लालबत्ती और और न ही सत्ता। ऐसे में दलित वोट बीएसपी के लिए जीत में तभी तब्दील होते हैं जब वे अन्य सामाजिक समूहों के मतों से जुड़ते हैं, जबकि 2014 में तो दलितों का एक हिस्सा मायावती से दूर हो गया।
बता दें कि प्रदेश में छह प्रमुख दलित जातियां हैं जाटव, चमार, वाल्मीकि, पासी, धोबी और कोरी। इनमें करीब 66 उपजातियां हैं, जो सामाजिक तौर पर बंटी हुई हैं। इन उप जातियों में जाटव व चमार 56 प्रतिशत, पासी 16 प्रतिशत, धोबी, कोरी और वाल्मीकि 15 प्रतिशत हैं जबकि गोंड, धानुक और खटीक भी इसी श्रेणी में जिनकी आबादी 05 प्रतिशत हैं। कुल मिला कर प्रदेश में 20.7 फीसदी दलित आबादी है जो इस प्रदेश का सबसे बड़ा वोट बैंक है।
जाति जिला
चमार-आजमगढ़, जौनपुर, आगरा, बिजनौर, सहारनपुर, गोरखपुर, गाजीपुर
पासी-सीतापुर, रायबरेली, हरदोई, इलाहाबाद
धोबी-कोरी-बाल्मिकी- बरेली, सुल्तानपुर, गाजियाबाद
यूपी में सर्वाधिक दलित जनसंख्या
सौनभद्र-41.9 प्रतिशत
कौशांबी-36.1 प्रतिशत
सीतापुर-31.9 प्रतिशत यूपी में दलित साक्षरता दर कुल-60.9 प्रतिशत पुरुष-75.2 प्रतिशत
बांसगांव, लालगंज, मछलीशहर, रॉबर्ट्सगंज, कौशांबी, बाराबंकी, बहराइच, नगीना, बुलंदशहर, आगरा, शाहजहांपुर, हरदोई, मिश्रिख, मोहनलालगंज, इटावा, जालौन। यूपी में बसपा
वर्ष-विधायक-सीटों पर लड़ी-जमानत जब्त- वोट प्रतिशत
1989 -13-372-282-9.41
1991-12-386-299-9.44
1993-67-164-40-11.12
1996-67-401-91-23.43
2007-206-403-36-30.43
2012-80-403-51-25.91
2017-19-403-81-22.23
भाजपा-24
एनडीए5.7
कांग्रेस-18.5
यूपीए-1.2
वाम दल-6.9
बसपा-13.9
सपा-1.1
आप-1.7
अन्य-26.2
नोटा-0.9 पूर्वी उत्तर प्रदेश के नेता
राम धन, गनपत राम,जय प्रसाद, राम प्यारे सुमन, बद्दल राम, माता प्रसाद, धर्मवीर,मसुरिया दिन पासी