पार्टी के आम कार्यकर्ताओं का आरोप है कि युवा होने की दुहाई दे कर जिनके हाथों में फिलहाल यूपी और खास तौर पर पूर्वांचल की कमान सौंपी गई है वही नौसिखिए उत्तर प्रदेश में बचे खुचे संगठन को डूबो रहे हैं। उनके उपेक्षात्मक रवैये और कार्य व्यवहार से असंतोष का वातावरण तैयार हो रहा है। हाल यह है कि संगठनात्मक कार्यकर्ता बस संगठन के गठन के इंतजार में बैठे हैं। लेकिन अंदर ही अंदर उनके अंदर बेचैनी सी भी है। हालात ऐसे हैं कि परिणाम संगठनात्मक रूप से अनुकूल न होने पर सरफुट्टवल तय है।
कहने को प्रदेश की कमान के लिए जितिन प्रसाद, ललितेशपति त्रिपाठी का नाम तेजी से उठा। यह भी चर्चा उठी कि यूथ कांग्रेस और एनएसयूआई की तर्ज पर प्रदेश को चार भाग में बांट कर चार अध्यक्ष बनाए जाएं या चार प्रभारी बनाए जाएं। लेकिन वह चर्चा भी फिलहाल हवा हवाई ही नजर आ रही है। ऐसे में यूपी के ज्वलंत मुद्दों पर अकेले प्रदेश प्रभारी प्रियंका गांधी ही लड़ती नजर आ रही हैं। चाहे वह सोनभद्र का मसला हो, उन्नाव पीड़ित का प्रकरण हो या बच्चों को नमक रोटी खिलाने का मसला। इन सभी मुद्दों पर पहल प्रियंका गांधी ने ही की लेकिन पार्टी उसे आमजन तक नहीं पहुंचा सकी। लोगों का विश्वास नहीं जीत सकी। मुद्दे उठे, सोशल मीडिया पर वायरल हुए पर जितनी तेजी से चले उतनी ही तेजी से विलुप्त भी हो गए।
अब एक नया मसला उठा गुरुवार को सरकारी प्राथमिक व माध्यमिक स्कूलों में दलित बच्चों के साथ भेद-भाव का जिसे बसपा सुप्रीमों मायावती ले उड़ीं। किसी कांग्रेसी के ध्यान में यह मसल नहीं आया।
अगर वाराणसी की बात करें तो जिस आयोजन पर प्रियंका गांधी की निगह है वह कार्यक्रम भी पूर्व निर्धारित समय से संपन्न नहीं हो सका। अब उसकी तिथि टाल दी गई है। दरअसल उस कार्यक्रम की तैयारी की रुपरेखा को लेकर ही स्थानीय कांग्रेसी बंटे हूए हैं। आनन फानन में सामंजस्य बनाने के लिए कार्यक्रम के राष्ट्रीय संयोजक ने बनारस के दोनों गोल से नाम मांगे और दोनो के युवा कर्णधारों को सदस्य बना डाला। फिर भी ढाक के वही तीन पात 5000 बच्चों को प्रतियोगिता में हिस्सा लेना है और विधायक का चुनाव लड़ने की आस में दलबदल कर कांग्रेस में आए एक विद्यालय संचालक को पहले पीसीसी सदस्य बनाकर और अब जिलाध्यक्ष बनवाने का आश्वासन दे सारी जिम्मेदारी सौंप दी गई। बताया जा रहा है कि इससे निवर्तमान अध्यक्ष भी ढीले पड़ गए हैं। निवर्तमान महानगर अध्यक्ष सीताराम केसरी ने जनहित के मुद्दों पर पूर्व विधायक के नेतृत्व में आंदोलन चलाने की कोशिश भले की लेकिन वह भी कारगर होता नहीं दिख रहा। यानी विधानसभा चुनाव से पूर्व आम आदमी का विश्वास जीतने का फंडा पूरी तरह से फ्लाप साबित हो रहा है। बनारस कांग्रेस की रस्साकसी बदस्तूर जारी है। अब तो लोग यह भी कहने लगे हैं कि जिन दो ध्रुवों में रस्साकसी चल रही है उनके लोगों की बजाय उन्हें ही जिला व महानगर की कमान सौंप दी जाए।