scriptVideo-‘पखावज’ को पुनर्जीवित करने के लिए शुरू हुआ ‘ध्रुपद मेला’ कैसे धीरे-धीरे अन्तर्राष्ट्रीय संगीत समारोह बन गया | Dhrupad Mela Music Concert 45 year Golden History | Patrika News

Video-‘पखावज’ को पुनर्जीवित करने के लिए शुरू हुआ ‘ध्रुपद मेला’ कैसे धीरे-धीरे अन्तर्राष्ट्रीय संगीत समारोह बन गया

locationवाराणसीPublished: Mar 04, 2019 02:59:26 pm

Submitted by:

Ajay Chaturvedi

पत्रिका से खास बातचीत में पद्मश्री राजेश्वर आचार्य ने बताया, इस अंतर्राष्ट्रीय संगीत मेले के लिए भारत सरकार से एक पैसा नहीं लेते पर हर साल पांच करोड़ का राजस्व जरूर देते हैं।
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अंतर्राष्ट्रीय ध्रुपद मेला काशी

अंतर्राष्ट्रीय ध्रुपद मेला काशी

डॉ अजय कृष्ण चतुर्वेदी

वाराणसी. काशी का अंतर्राष्ट्रीय ध्रुपद मेला। ऐसा मेला जिसमें कोई विशष्टता नहीं, कोई सुरक्षा नहीं, जो चाहे आए, जितनी देर चाहे संगीत की रसधार में गोते लगाए। रंच मात्र भी वीआईपी कल्चर नहीं देखने को मिलेगा। एक से बढ़ कर एक अंतर्राष्ट्रीय ख्याति के संगीतकार पहुंचते है। विदेश से संगीत रसिकों का जत्था आता है पर सुरक्षा के कोई इंतजाम नहीं। सारी सुरक्षा बाबा विश्वनाथ के सिर माथे। इस संगीत समारोह की शुरूआत ऐसे ही नहीं हुई, बल्कि यह मेला शुरू हुआ मृत प्राय हो चले, विलुप्त हो रहे प्राचीन वाद्य यंत्र को पुनर्जीवित करने के लिए। उसे तबला, सितार के आकर्षण के बीच लोकप्रिय करने को। और इसका बीड़ा उठाया प्रसिद्ध खयाल गायक इसी वर्ष पद्मश्री से नवाजे गए डॉ राजेश्वर आचार्य ने। लेकिन इसके पीछे किसी का हाथ रहा तो वो थे काशी के महादेव, काशिराज डॉ विभूति नारायण सिंह। पत्रिका ने डॉ आचार्य से इस अंतर्राष्ट्रीय हो चके ध्रुपद मेले के बारे में खास बातचीत की। प्रस्तुत है संपादित अंश…
वैसे तो आम तौर पर किसी कलाकार या किसी भी गणमान्य से साक्षात्कार की एक विधा प्रचलित है सवाल जवाब की, लेकिन इस साक्षात्कार के दौरान एक सवाल किया गया इस धुपद मेला और महाशिवरात्रि के संयोग का फिर डॉ आचार्य ने खुद ही सारी कहानी बड़े ही रोचक अंदाज में सुनाई।
डॉ आचार्य ने पत्रिका को बताया कि वह 1975 का साल था, प्राचीन वाद्य यंत्र पखावज के रसिक कम होते जा रहे थे। इसे देख दुःख हुआ, सो सोचा गया कि क्यों ने पखावज को पुनर्जीवित करने के लिए एक संगीत समारोह आयोजित किया जाए। जब इसके लिए नाम सोचा जाने लगा तो सोचा गया कि कोई भी समारोह हो, कांग्रेस हो, अधिवेशन हो पर मेला शब्द में जो विस्तार है वह किसी और में नहीं। मेला यानी सर्वजन की सहभागिता। यह बात किसी तरह से पहुंच गई पूर्व काशिराज डॉ विभूति नारायण सिंह के कानों तक। उन्होंने एक दिन बुलवाया और मेला शुरू करने का निर्देश दिया। डॉ आचार्य बताते हैं कि मैनें उन्हें बनारसी अंदाज में टका सा जवाब दिया, ‘ छह महीने तक भिक्षाटन कर मेला नाहीं करा सकित’। जवाब मिला मेला शुरू हो इसके बंदोबस्त का जिम्मा मेरा। बस वो दिन और आज का दिन इस मेले का सारा खर्च महाराज परिवार उठाता चला आ रहा है। इसके लिए तुलसी घाट पर जमीन मिली जो संकट मोचन मंदिर के महंत प्रो विश्वंभर नाथ मिश्र की देन है। बस ऐसे ही सिलसिला शुरू हुआ और आज 45वें पायदान पर पहुंच गया।
उन्होंने पत्रिका को बताया कि 1975 में जब यह मेला शुरू हुआ तो नाम दिया गया अखिल भारतीय ध्रुपद समित, अगले साल महासमित हो गया। इन दो सालों में दिल्ली संगीत एकेडमी से 10, 000 रुपये की मदद भी मिली लेकिन काशिराज परिवार का आशीर्वाद भी मिलता रहा। अब इस 45वें पायदान पर पहुंच कर इस मेले को अंतर्राष्ट्रीय मुकाम हासिल हो गया है। दरअसल जब नीदरलैंड, अमेरिका, दक्षिण अफ्रीका जैसे अनेक देशों के कलाकार खुद ब खुद यहां खिंचे चले आते हैं तो यह लोकल तो नहीं न रह गया ‘राजा बाबू’।
ध्रुपद मेला और महाशिवरात्रि के मिलन के बाबत पद्मश्री आचार्य ने बताया कि ये पूर्व काशिराज की देन है। उन्होंने ही 1976 में यह निर्देश दिया कि इसे अब महाशिवरात्रि से जोड़ दिया जाए। महाशिवरात्रि से दो-तीन दिन पहले शुरू हो और महाशिवरात्रि को समापन हो। बस महाराज का आदेश था जो सिरोधार्य हो गया। यहां बाबा से सीधा सरोकार होता है। हम संगीत के माध्यम से भगवान को नहीं पाते, हमारा संगीत ही भगवान है। ऐसा मेरा मानना है। ऐसे में यह अमृत तत्व है। ध्रुव है, शाश्वत तत्व है। हम भगवान शंकर के शिष्य हैं जिनका कभी जन्मोत्सव नहीं मनाया जाता, वह अनादि हैं, उनका विवाहोत्सव मनाया जाता है। सो इसे शिवरात्रि से जोड़ दिया गया। वैसे भी कौन नहीं जानता कि पूर्व काशिराज डॉ विभूति नारायण सिंह कितने बड़े शिव भक्त थे। काशी में तो उन्हें शिव का अवतार माना गया है। फिर उनकी आज्ञा का समादर तो करना ही था।
उन्होने बताया कि ध्रुव यानी स्टेटस, पद, पांव, पोएट्री, कदम इन सब को मिला लीजिए तो उसी को रिप्रजेंट करता है यह ध्रुपद मेला। इसमें नेचुरल रिदमिक बिहेबियर, टोनल पैटर्न, टोनल वैल्यू सबका मिश्रण मिलता है। स्थाइत्व है। तभी तो डागर बंधु भी दौड़े चले आते हैं। अपनी प्रस्तुति के लिए। स्वयं संचालित प्रक्रिया के तहत।
उन्होंने बताया कि बनारस में पंडित अमरनाथ मिश्र और डॉ लालमणि मिश्र जैसे पखावज वादक रहे। लेकिन उनके बाद यह विधा धीरे-धीरे खत्म होने लगी। किसी कॉलेज में इसे सिखाया नहीं जाता था। लोक में इसका प्रचलन नहीं रहा। तब तबला वादक किशन महाराज, सितार वादक पंडित रविशंकर का जमाना था। लोग सितार और तबले की जुगलबंदी को पसंद करते थे। ऐसे में इन दोनों महान कलाकारों को भी साधा गया कि आप की कला तो बुलंदियां छू ही रही हैं इस बीच प्राचीन कला को भी मौका दिया जाना चाहिए। दोनों सहमत हुए और इस ध्रुपद मेले के मंच को सुशोभित भी किया।
कहा कि इस मेले में हर साल डेढ़ से दो हजार विदेशी कलाकार और श्रोता आते हैं। इतना बड़ा आयोजन है पर भारत सरकार से फूटी कौड़ी नहीं लेते पर हर साल पांच करोड़ रुपये की विदेशी मुद्दा राजकोष में इसके माध्यम से जमा होती है। इसके लिए स्टूडेंट वीजा, टूरिस्ट वीजा और अब ध्रुपद पैकेज हो गया है।
उन्होंने कहा विदेशी श्रोता और दर्शक तो इसका आनंद अपने ढंग से लेते ही है जहां तक काशीवासियों का सवाल है तो उनका एक किस्सा सुना दें, यहां के खांटी काशीवासी कहते हैं, ‘हम त साफा पानी दे कर मूड बना के चल जाई ला, घाटे पर, अंगोछा बिछा करे घाट पर सुत जाई ला और जौन गीत-संगीत जगा देवे ला उठ के कत्तो बैठ जाइला रजा’। त ई हौ काशी कर ध्रुपद मेला। एकर नाम ऐही बदे मेला रखल गयल जैसे दुर्गा मेला, सोरहिया मेला। एमे जवन मजा हौ ऊ औरो कवनों संगीत समारोह में नाहीं।
पद्मश्री डॉ राजेश्वर आचार्य
पद्मश्री डॉ राजेश्वर आचार्य
पद्मश्री डॉ राजेश्वर आचार्य
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