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लोग हुए कमाऊ, खत्म हुए प्याऊ, स्मार्ट सिटी वाराणसी में जल संकट

locationवाराणसीPublished: Apr 18, 2018 12:42:05 pm

Submitted by:

Ajay Chaturvedi

Drinking Water Crisis : आधुनिकता के दौर में अब प्यासों के लिए सड़क पर नहीं लगते पौसरे। मवेशियों के लिए भी नहीं रखे जाते प्यास बुझाने के लिए वो नाद।

प्याऊ की प्रतीकात्मक फोटो

प्याऊ की प्रतीकात्मक फोटो

वाराणसी. धार्मिक और सांस्कृतिक नगरी काशी अपनी परंपराओं को भूलती जा रही है। ऐसा नहीं कि धर्म प्राण जनता नहीं रही इस काशी में, पर अब धर्म भी आडंबर में कहीं ज्यादा तब्दील हो गया है। मानवता पर आधुनिकता ने कब्जा जमा लिया है। दिखावे के नाम पर लाखों, करोड़ों खर्च कर दिए जाते हैं पर मानवता के नाम पर एक बूंद पानी तक नसीब नहीं होता इस तपती, झुलसी दोपहरी में। आम आदमी क्या, अब वो सामाजिक संस्थाएं भी नहीं रहीं और तो और नगर निगम ने भी इस तरपफ से मुंह मोड़ लिया है। शहर में खोजने से कहीं कोने अतरे एकाध सार्वजनिक नल मिल जाए लेकिन वहां भी पानी यदा कदा ही आता है। हैंडपंप हैं कि वो महज दिखावे के लिए रह गए हैं। कारण भूमिगत जल स्तर इतना नीचे जा चुका है कि हैंडपंपों में पानी आता ही नहीं। लिहाजा राहगीर हों या रिक्शा, ट्राली चालक इस गर्मी में जब डॉक्टर बताते हैं कि शरीर में पानी की कमी नहीं होनी चाहिए यह शहर बेपानी हो चुका है।
धार्मिक मान्यता के तहत अक्षय तृतीय के दिन से ही कभी शहर में जगह-जगह लगाए जाते रहे हैं प्याऊ। ये प्याऊ भगवान जगन्नाथ के सैर पर निकलने के उपलक्ष्य में लगने वाले रथयात्रा मेले तक कायम रहते थे। प्यासों की प्यास बुझाने के लिए होते थे पक्के इंतजाम। सामाजिक संस्थाओं से लेकर नगर निगम तक का होता रहा सहयोग। लेकिन आधुनिकता के दौर में जब लोगों की जेब में पैसा बढ़ा, प्याऊ लगने भी प्रथा भी खत्म हो गई। नगर निगम ने भी अपना हाथ खींच लिया। ज्यादा नहीं एक दशक पहले तक प्याऊ का इंतजाम देखने को मिल ही जाता था। शीतल जल ही नहीं उसके साथ गुड़ या ताल मिश्री, लाचीदान और कहीं-कहीं तो पेठा जिसे बनारस में कोहड़ा पाग कहता जाता है वह भी मिलता था। पुराने रईस, गद्दीदार लोग प्याऊ लगवाना पुण्य का काम समझते रहे। बड़े शौक से प्याऊ लगाए जाते थे।
इससे जहां तपती दोपहरी में प्यासे राहगीरों का गला तर होता था वहीं कुछ लोगों को सिजनल काम मिल जाता था। रईस जहां-जहां प्याऊ का इंतजाम करते थे वहां लोगों को पानी पिलाने के लिए आदमी रखे जाते थे। प्याऊ के लिए बड़े-बड़े घड़े या नाद रखे जाते थे तो कुम्हारों की रोजी-रोटी भी चलती थी। लेकिन अब ऐसा कहीं नहीं, अब वो धर्मप्राण रईस गद्दीदार रहे ही नहीं। नगर निगम की ओर से जैसे जाड़े के दिनों में अलावा का इंतजाम होता है (अब वो भी महज खानापूरी रह गया है।) वैसे ही प्याऊ का इंतजाम होता था। उसके लिए बाकायद बजट पास होता था।
प्याऊ को कौन कहे अब तो लोगों को घरों में शुद्ध पानी मयस्सर नहीं तो प्याऊ का इंतजाम क्या करेगा नगर निगम और जलकल। आलम यह है कि 20 लाख की आबादा वाले शहर में 311 एमएलडी पानी की जरूरत है। इसके सापेक्ष 135 लीटर रोजाना उपलब्धता का मानक है प्रतिदिन प्रति व्यक्ति महज 92 लीटर की आपूर्ति हो रही है। इस तरह इस स्मार्ट होते शहर में 129 एमएलडी पानी की कमी है। हालात इतने बदतर हो गए हैं कि शहर के ऊंचाई वाले इलाकों में पानी या तो पहुंच ही नहीं रहा अगर पहुंच भी रहा है तो लो प्रेशर के साथ। मसलन चौक, ज्ञानवापी, ब्रह्मनाल, कचौड़ी गली, सरस्वती फाटक, नेपाली खपड़ा आदि इलाकों में भूतल पर भी पानी नहीं पहुंच पा रहा है। यहां तक कि लोगों ने मेन पाइप लाइन में तकरीबन आठ से 10 फीट नीचे गड्ढा खोदवा कर वाटर पंप लगवाए हैं पर यह पंप भी पानी नहीं खींच पा रहा है। उधर खोजवां, किरहिया, बजरडीहा, नवाबगंज, सुंदरपुर, सरायनंदन, कश्मीरीगंज, अस्सी, भदैनी में भी पानी की किल्लत बनी हुई है।

पेयजल संकट के लिए बिजली की कटौती भी कम जिम्मेदार नहीं। बिजली के तारों को भूमिगत करने के काम में रोजाना दिन-दिन भर बिजली गुल रहने के कारण नलकूप तक नहीं चल पा रहे हैं जिससे वाटर सप्लाई प्रभावित हो रही है। जो पानी आ भी रहा है लो प्रेशर के चलते लोग घरों में स्टोर नहीं कर पा रहे हैं।
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