-हिंदी गौरव पुरुष डॉ बद्रीनाथ ने कहा, हिंदी की सेवा हिंदी भाषी से ज्यादा गैर हिंदी भाषियों ने की-भारतेंदु हरिश्चंद्र की राह पर चल कर ही हो सकता है हिंदी का कल्याण-आज तो बड़े-बड़े प्रोपेसर भी अशुद्ध हिंदी लिखते हैं
हिंदी साहित्य सेवी डॉ बद्रीनाथ कपूर
डॉ अजय कृष्ण चतुर्वेदीवाराणसी. भारत-पाकिस्तान बंटवारे के गवाह हिंदी सेवी डॉ बद्रीनाथ कपूर को उत्तर प्रदेश हिंदी संस्थान ने हिंदी गौरव सम्मान के लिए चुना है। संस्थान के इस सम्मान से वह खुश भी हैं, लेकिन कहते हैं कि मैंने जीवन में कभी सम्मान और पुरस्कार के लिए काम नहीं किया। किसी अफसर या राजनेता के पास नहीं गया। अब सम्मान मिलने वाला है ठीक उन्हें मेरी हिंदी सेवा का भान हुआ। अरे मेरे गुरुओं, पूर्वजों को कोई सम्मान नहीं मिला तो क्या उन्होंने हिंदी की सेवा नहीं की। मैं तो उन पूर्वजों को ही अपना आदर्श मानता हूं।
हिंदी संस्थान के इस बड़े पुरस्कार की घोषणा के बाद वाराणसी के लाजपत नगर निवासी डॉ बद्रीनाथ के आवास पर उन्हें शुभकामना देने वालों का सुबह से ही तांता लगा है। इसी बीच पत्रिका संवाददादा भी पहुंचा हिदी के इस महान सेवक 87 वर्षीय डॉ कपूर के आवास पर। वृद्ध हिंदी सेवी डॉ कपूर ने कांपती आवाज में बताया कि मैं तो देश के बंटवारे के बाद 1947 में काशी आया। जब पाकिस्तान से आया तो मेरे पास मेरे दादा जी थे। माता-पिता की हत्या हो चुकी थी। यहीं मामा आचार्य रामचंद्र वर्मा जो नागरी प्रचारिणी सभा में मंत्री थे उनके ही संरक्षण में पला-बढा। यहीं हरिश्चंद्र कॉलेज से पढाई की और जुट गया हिंदी की सेवा में।
पाकिस्तान के गुंजरांवाला में 16 सितंबर 1932 को जन्मे डॉ कपूर ने कहा कि वहां तो मैं विज्ञान का विद्यार्थी था, सब कुछ ऊर्दू में ही पढता रहा लेकिन यहां आ कर हिंदी में सारी पढ़ाई की। यह पूछने पर कि ऊर्दू से अचानक हिंदी में पढाई करने में किसी तरह की दिक्कत तो नहीं आई, जवाब था, जब केवल पढना ही काम था तो काहे की दिक्कत। ऐसा कुछ नहीं रहा। हरिश्चंद्र कॉलेज के पढाई पूरी करने के बाद मैने पीएचडी के लिए इलाहाबाद विश्वविद्यालय और पंजाब यूनिवर्सिटी से अप्लाई किया। सलेक्शन दोनों जगह हो गया लेकिन मैं पंजाब चला गया। आचार्य हजारी प्रसाद द्विवेदी भी तब तक बनारस हिंदू विश्वविद्यालय से पंजाब पहुंच चुके थे। वहीं से पीएचडी की। फिर जुड़ गया प्रयागराज के हिंदी साहित्य सम्मेलन से। वहीं हिंदी कोश का सृजन किया। बताते हैं कि वह ऐसा कोश है जिसके कई संस्करण निकले। कोशिश यही होती है कि हिंदी को जितना समृद्ध किया जा सके किया जाए। ऐसा आम लेखक नहीं करते। एक बार जो किताब छप जाती है उसमें संशोधन नहीं होता। लेकिन मैं आज भी इस उम्र में नए-नए शब्दों को तलाशता रहता हूं, उस कोश में जोड़ता रहता हूं।
हिंदी का कोश अपने में समृद्ध, अंग्रेजी-संस्कृत की मोहताज नहीं उन्होंने बताया कि लोग कहते हैं कि हिंदी के पास अपना कुछ नहीं वह तो अंग्रेजी और संस्कृत पर आश्रित है। लेकिन मैं कहता हूं कि ये सोच ही गलत है। हिंदी के पास अपना समृद्ध कोष है। कोई जानने की कोशिश तो करे। हमारे पूर्वजों ने इसे समृद्ध करने के लिए अपना जीवन खपा दिया। ऐसी बातें सालती हैं। दुःख देती हैं।
हिंदी को समृद्ध करने को भारतेंदु बाबू की सोच अपनाना होगा 90 वर्ष के करीब पहुंच रहे डॉ बद्रीनाथ ने कहा, हिंदी को हिंदी भाषियों ने ही नुकसान पहुंचाया। वर्तमान में बड़े-बड़े प्रोफेसर हैं जो गलत हिंदी लिखते हैं, गलत हिंदी बोलते हैं। उन्होंने कहा कि हिदी को तो गैर हिंदी भाषियों ने ज्यादा समृद्ध किया। कहते हैं कि हिंदी को मातृभाषा के रूप में विकसित करने की होड़ से हिंदी का भला नहीं होने वाला। बल्कि इसके लिए भारतेंदु बाबू हरिश्चंद्र की राह पर चलना होगा, निज भाषा की बात को तरजीह देनी होगी। निज में जितना अपनापन है वह मातृ शब्द में नहीं।
डॉ कपूर की चिंता कैसे हो युवा पीढी का कोश कार्य से जुड़ाव डॉ कपूर की चिंता है कि युवा पीढी का जुड़ाव कोश कार्य से नहीं हो पा रहा है। ऐसे में इस कोशकारों की विरासत को कौन और कैसे संभालेगा। उनकी चिंता यह भी है कि हिंदी में नित्य प्रति सैकड़ों शब्द जुड़ रहे हैं, ऐसे शब्द जो दो-तीन दशक पूर्व के शब्द कोश में नहीं, अब इनका संशोधन कैसे हो, परिवर्धन कैसे हो।
डॉ बद्रीनाथ की प्रमुख रचनाएं बता दें कि डॉ बद्रीनाथ बेसिक हिंदी, हिंदी पर्यायों का भाषागत अध्ययन, वैज्ञानिक परिभाषा कोश, शब्द परिवार कोश, हिंदी अक्षरी, लोकभारती मुहावरा कोश,परिष्कृत हिंदी व्याकरण, सहज हिंदी व्याकरण, मीनाक्षी हिंदी-अंग्रेजी कोश, मीनाक्षी अंग्रेजी-हिंदी कोश, नूतन पर्यायवाची कोश, लिपी वर्तनी और भाषा, हिंदी व्याकरण की सरल पद्धति, आधुनिक हिंदी प्रयोग कोश, वृहत् हिंदी अंग्रेजी कोश, मुहावरा तथा लोकोक्ति कोश, व्याकरण मंजूषा, हिंदी प्रयोग कोश और वृहत अंग्रेजी हिंदी कोश सहित कुल लगभग 45 ग्रंथों के रचियता हैं। इसके अलावा योग वशिष्ट का हिंदी अनुवाद भी किया।
डॉ कपूर को अब तक मिले सम्मान अन्नपूर्णा वर्मा अलंकरण (1997), सौहार्द सम्मान (1997), काशीरत्न (1988), महामना मदन मोहन मालवीय सम्मान (1999), विद्याभूषण सम्मान (2000) से अलंकृत किया जा चुका है। वह जापान के टोक्यो यूनिवर्सिटी में 1983 से 1986 तक अतिथि प्रोफेसर के रूप में कार्यरत रहे।