पत्रिका विशेष आवेश तिवारी वाराणसी। तेनजिन तुसांदे बनारस शहर के अस्पतालों का बदहवास की तरह चक्कर लगा रहा है। कमबख्त उम्मीद की लौ वक्त बीतने के साथ साथ कमजोर पड़ती जा रही है। क्या करे तेनजिन? बनारस से कोई रास्ता भी तिब्बत को नहीं जाता। अपनी कविताओं से तिब्बत में तहलका मचा देने वाले तेनजिन के भाई ने आजादी आजादी चिल्लाते हुए दो दिनों पहले खुद को आग लगा ली, वो आजादी आजादी अभी भी चिल्ला रहा लेकिन उसकी आवाज अस्पताल के बर्न विभाग में डूब रही है । उसने अपने बड़े भाई और तिब्बत के सुप्रसिद्ध कवि तेनजिन तुसांदे को कहा कि मेरे बाद मेरे लिए किसी को रोने मत देना मैंने अपनी देह तिब्बत की आजादी के लिए समर्पित कर दी है। आजादी आजादी चिल्लाते हुए तेनजिन ने लगा ली आग तेनजिन चोएइंग ने उस वक्त खुद को आग लगा ली थी जब तिब्बत की निर्वासित सरकार के प्रधानमंत्री डॉ. लोबसांग सांगेय संस्थान के अतिशा हाल में चीन की खिलाफत में भाषण दे रहे थे। यह वही वक्त था जब चीन सीमा पर हमें ललकार रहा था। यह वही वक्त था जब हिंदुस्तान तभी कार्यक्रम स्थल से करीब 50 मीटर दूर हॉस्टल से पूर्व मध्यमा द्वितीय वर्ष का छात्र तेनजिंग जोंगे शरीर पर केरोसिन डालकर आग लगाकर सभागार की तरफ दौड़ा। जब तक छात्र उस तक पहुँचते तेनजिंग 70 फीसद झुलस चुका था। जब उसे अस्पताल भेजा रहा था तब भी उसके मुंह से निकला कि आत्मदाह को छोड़ कोई दूसरा विकल्प शेष नहीं। अब समय आ गया है कि पूरा विश्व मिलकर चीन को सबक सिखाते हुए तिब्बत को आजादी दिलाए।तेनजिन चोएईन्ग ने तिब्बत के लिए जो किया दरअसल वो उसके बड़े भाई तेनजिन त्सुंदे के बताये गए रास्ते हैं माथे पर पिछले आठ सालों से लाल पट्टी बांधे तेनजिन ने तिब्बत की आजादी की अपनी लड़ाई में अपनी पूरी युवावस्था ख़त्म कर दी। तेनजिन ने कहा है कि जब तक तिब्बत को आजादी नहीं मिलेगी मेरे माथे से यह लालपट्टी नहीं उतरेगी वो तेनजिन ही था। भाई के नक्शों कदम पर भाई जो 2002 में उस होटल की छत पर चढ़कर ‘तिब्बत को आजादी दो ,चीन वापस जाओ’ के नारे लिखा बैनर लगा आया जिस होटल में चीन के वरिष्ठ नेता झु रोंजी रुके हुए थे ,2005 में भी उसने यही काम दोबारा किया और इंडियन इंस्टीटयूट आफ साइंस की 200 फीट ऊँचे टावर पर चढ़ गया जब वेन जियाबाओ भारत आये हुए थे। 2006 में जब चीनी राष्ट्रपति भारत आये तो तेनजिन को भारत की पुलिस ने धर्मशाला छोड़ने पर रोक लगा दी । तेनजिन चोएइंग के दोस्त कहते हैं कि उसने अपने भाई के इस संघर्ष और देश के प्रति समर्पण को देखा है ,उसे लगता है कि ऐसा करके ही वो अपने देश के प्रति अपने समर्पण को प्रदर्शित कर सकता है । पढ़िए तेनजिन तुसांदे की यह कविता – मुक्केबाज़ी के दस्ताने पहने बारिश की बूँदें हज़ारों हज़ार टूट कर गिरती हैं और उनके थपेड़े मेरे कमरे पर । टिन की छत के नीचे भीतर मेरा कमरा रोया करता है बिस्तर और कागजों को गीला करता हुआ । कभी-कभी एक चालाक बारिश मेरे कमरे के पिछवाड़े से होकर भीतर आ जाती है धोखेबाज़ दीवारें उठा देती हैं अपनी एडिय़ाँ और एक नन्हीं बाढ़ को मेरे कमरे में आने देती हैं । मैं बैठा होता हूँ अपने द्वीपदेश बिस्तर पर — और देखा करता हूँ अपने मुल्क को बाढ़ में, आज़ादी पर लिखे नोट्स, जेल के मेरे दिनों की यादें, कॉलेज के दोस्तों के ख़त, डबलरोटी के टुकड़े और मैगी नूडल भरपूर ताक़त से उभर आते हैं सतह पर जैसे कोई भूली याद अचानक फिर से मिल जाए । तीन महीनों की यंत्रणा सुईपत्तों वाले चीड़ों में मानसून –, साफ धुला हुआ हिमालय शाम के सूरज में दिपदिपाता । जब तक बारिश शान्त नहीं होती और पीटना बन्द नहीं करती मेरे कमरे को ज़रूरी है कि मैं ब्रिटिश राज के ज़माने से ड्यूटी कर रही अपन टिन की छत को सांत्वना देता रहूँ, इस कमरे ने कई बेघर लोगों को पनाह दी है, फिलहाल इस पर कब्ज़ा है नेवलों, चूहों, छिपकलियों और मकड़ियों का, एक हिस्सा अलबत्ता मैंने किराए पर ले रखा है, घर के नाम पर किराए का कमरा — दीनहीन अस्तित्व भर । अस्सी की हो चुकी मेरी कश्मीरी मकान-मालकिन अब नहीं लौट सकती घर, हमारे दरम्यान अक्सर खूबसूरती के लिए प्रतिस्पर्धा होती है — कश्मीर या तिब्बत । हर शाम लौटता हूँ मैं किराए के अपने कमरे में लेकिन मैं ऐसे ही मरने नहीं जा रहा, यहाँ से बाहर निकलने का कोई रास्ता ज़रूर होना चाहिए, मैं अपने कमरे की तरह नहीं रो सकता, बहुत रो चुका मैं क़ैदख़ानों में और अवसाद के नन्हें पलों में । यहाँ से बाहर निकलने का कोई रास्ता ज़रूर होना चाहिए, मैं नहीं रो सकता — पहले से ही इस कदर गीला है यह कमरा