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वाराणसी

SIROHI- रोड़े अटकाने का नहीं, विकास का साथी है वन महकमा

 आम तौर पर वन विभाग को विकास कार्यों में रोड़ेे अटकने वाले विभाग के रूप में देखा जाता है। सरकार के प्रयास विकास की गति में बाधा के लिए नहीं वरन इसकी आड़ में प्राकृतिक संसाधनों के अंधाधुंध दोहन पर विराम लगाते हुए विकास, पर्यावरण एवं पारिस्थितिकी के मध्य न्यायोचित संतुलन बनाए रखने के उद्देश्य […]

वाराणसीApr 02, 2017 / 09:22 am

rajendra denok

 आम तौर पर वन विभाग को विकास कार्यों में रोड़ेे अटकने वाले विभाग के रूप में देखा जाता है। सरकार के प्रयास विकास की गति में बाधा के लिए नहीं वरन इसकी आड़ में प्राकृतिक संसाधनों के अंधाधुंध दोहन पर विराम लगाते हुए विकास, पर्यावरण एवं पारिस्थितिकी के मध्य न्यायोचित संतुलन बनाए रखने के उद्देश्य से किए जाते हैं। वन विभाग के माध्यम से संरक्षण के कार्य अब तक सराहनीय रहे हैं। ताजा उदाहरण बत्तीसा नाला परियोजना है जिसका काम नियमानुसार तेज गति से चल रहा है। विभाग ने सर्वे कर रिपोर्ट भेज दी है। वैसे आम धारणा है कि वन संरक्षण के ऐसे सराहनीय कार्यों को खास तौर पर जन प्रतिनिधियों द्वारा विकास में बाधा के रूप में देखा जाता है और संभवत: इस बाबत स्थानीय निवासियों में भ्रम भी फैलाया जाता है। वन संरक्षण अधिनियम-198 0 के अनुसार वन क्षेत्र में विकास के प्रावधान निर्धारित किए हुए हैं। कोई विकास एजेंसी अधिनियम के तहत कर्रवाई कर वन क्षेत्र में काम की अनुमति ले सकती है किन्तु कतिपय प्रभावशाली कारकों के कारण अमूमन नियमानुसार कार्रवाई बिना ही वन क्षेत्रों में काम शुरू करा दिए जाते हैं। ऐसी स्थिति में वन विभाग कार्य रुकवा देता है तथा दोषियों के विरुद्ध वन संरक्षण अधिनियम-198 0 के उल्लंघन पर कर्रवाई शुरू की जाती है। दोनों ही स्थिति वन विभाग एवं उसके अधिकारियों को आमजन की दृष्टि में खलनायक के रूप में प्रस्तुत करती हैं। वैसे वन संरक्षण अधिनियम के उल्लंघन पर 15 दिनों के कारावास का प्रावधान है। अधिकांशत: वन अमला अत्यंत सीमित संसाधनों के बावजूद विपरीत परिस्थितियों में भी वन एवं वन्यजीव संरक्षण के प्रति समर्पित है जिसका उदाहरण घटते वन क्षेत्र के वावजूद बढ़ती वन्यजीव संख्या है। अवैध खनन, अतिक्रमण, भू-माफियों की कुदृष्टि आदि के बाद भी मुहैया संसाधनों के साथ वनों को बचाने में वन विभाग सफल रहा है क्योंकि सामानांतर में अन्य भूमियों की स्थिति अवैध गतिविधियों से लगभग शत-प्रतिशत आच्छादित हो चुकी है। आजादी के तुरंत बाद देश के लगभग एक तिहाई भाग पर वन था पर बड़ी औद्योगिक इकाइयों में कच्चे माल की आपूर्ति के लिए वन सम्पदा का हृास हुआ। इस पर वन संरक्षण के लिए कई कठोर कदम उठाए तथा वन्यजीव संरक्षण अधिनियम-1972 एवं वन संरक्षण अधिनियम-198 0 बनाए किन्तु औद्योगिक विकास की चाह, कच्चे माल की पूर्ति एवं तीव्र गति से बढ़ रही जनसंख्या के मध्य वन भूमि बचाना आसान न था। इसलिए संघ लोक सेवा आयोग से अधिकारियों का चयन शुरू किया तथा वन एवं वन्यजीव को भारतीय संविधान की समवर्ती सूची में शामिल किया।

पर्यावरण संरक्षण की दिशा में हो काम
पौधे लगाना और संरक्षण करना आज जरूरी है। केवल पौधे लगाने के समय फोटो खिंचवाने तक ही सीमित नहीं रहना चाहिए। वैसे इस मामले में काफी हद तक अच्छा काम शुरू भी हुआ है। आवश्यकता है कि वन विभाग को अन्य संस्थाओं से भी वन संरक्षण में वांछित सहयोग प्राप्त हो। जन मानस को भी यह समझना होगा कि चिरकाल से ही प्रकृति को देवी-देवताओं तुल्य माना गया है। अत: वन क्षेत्र को पृथक से साफ कर मंदिर बनाने से ही भगवान प्रसन्न होंगे, यह आवश्यक नहीं है। छोटे पड़ोसी देश भूटान से हमें भी सीख लेनी चाहिए। वहां 6 0 प्रतिशत से कम वन क्षेत्र नहीं होने देने के लिए संवैधानिक शपथ ले रखी है । राजस्थान में यह प्रतिशत 10 से भी कम है, क्या हम इसे भी संरक्षित नहीं रख सकते।

शशि शंकर पाठक, उप वन संरक्षक, सिरोही

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