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वायु प्रदूषण से मर रहे बच्चे, गर्भ में पल रहे बच्चे तक हो रहे प्रभावित

locationवाराणसीPublished: Oct 30, 2018 08:19:06 pm

Submitted by:

Ajay Chaturvedi

विश्व स्वास्थ्य संगठन की ताजा रिपोर्ट है चौंकाने वाली, अब तो स्वास्थ्य आपातकाल जैसी सूरत।

 वाराणसी में वायु प्रदूषण

वाराणसी में वायु प्रदूषण

वाराणसी. लगातार बढ़ते वायु प्रदूषण ने अब विकराल रूप धारण कर लिया है। बच्चे और किशोर हर दिन प्रदूषित हवा में सांस ले रहे हैं। हालात इतने बदतर हैं कि वायु प्रदूषण से अब मरने वालों की तादाद लगातार बढ़ती जा रही है। इसमें बच्चों की संख्या सबसे ज्यादा है। क्लाइमेट एजेंडा की मुख्य अभियानकर्ता एकता शेखर ने बताया कि डब्लू एच ओ की 29 अक्टूबर 2018 को जेनेवा स्थित विश्व स्वास्थ्य संघठन द्वारा जारी रिपोर्ट दिल दहलाने वाली है। “वायु प्रदूषण और बाल स्वास्थ्य” की रिपोर्ट के मुताबिक के अनुसार 194 देशों में 15 वर्ष से कम आयु के बच्चे हर दिन प्रदूषित हवा में सांस ले रहे हैं। इस रिपोर्ट के विश्लेषण से यह चौकाने वाला आंकड़ा सामने आया है कि भारत में वर्ष 2016 में पांच वर्ष से कम उम्र के तक़रीबन 01 लाख बच्चे इंडोर एवं आउटडोर वायु प्रदूषण के चपेट में आ कर मौत की नींद सो गए। उन्होने कहा कि रिपोर्ट हमे स्वास्थ्य आपातकाल जैसी स्थिति की चेतावनी देती है। आंकड़ो की बात करें तो प्रदेश में वायु गुणवत्ता सूचकांक अपने घातक स्तर पर पहुंच गया है। ऐसी स्थिति में प्रदूषण नियंत्रण बोर्ड को शीघ्र ही एक्शन लेने की आवश्कता है। राष्ट्रीय स्वच्छ वायु कार्ययोजना भी अभी तक अपने ड्राफ्टिंग प्रक्रिया में है जबकि प्रदूषण का स्तर लगातार बढ़ता जा रहा है।
एकता शेखर ने बताया कि रिपोर्ट मे एक शोध के हवाले से कहा गया है कि भारत मे पी एम 2.5 के कारण गर्भावस्था मे पल रहे बच्चे का वजन प्रभावित होता है। देश मे कई स्वास्थ्य केंद्रों में 1285 गर्भवती महिलाओं पर यह शोध किया गया। इस आधार पर यह कहा जा सक्ता है की भारत मे नवजात बच्चों के औसत से कम वजन के होने के पीछे वायू प्रदूषण एक बडा कारण है।
उन्होंने बताया कि प्रदूषण के स्त्रोत जिनमे पेट्रोल डीजल से चलित वाहनों से होने वाले प्रदूषण, सार्वजनिक निर्माण कार्य, पराली जलाना, ईंट भट्टों का संचालन, कूड़ा जलाना, औद्योगिक इकाईयों आदि पर शीघ्र रोक लगानी होगी। साथ ही प्रदूषण नियंत्रण बोर्ड की यह ज़िम्मेदारी है कि वह रोजाना वायु गुणवत्ता सूचकांक के अनुसार स्वास्थ्य सलाह आम जनता के बीच साझा करे, जिससे प्रदूषण से बचने के लिए आम जनता सावधानी बरत पाए।

दी क्लाइमेट एजेंडा की सीनियर कार्यकर्ता का कहना है किभारत में छोटे बच्चे वायु प्रदूषण के घातक कण पी एम (पार्टिकुलेट मीटर) 2.5 के समक्ष आकर 98 प्रतिशत तक प्रभावित हैं, जिसके कारण अस्थमा, फेफड़े से संबंधित जानलेवा बीमारी। हृदय रोग, मानसिक क्षति, जन्मजात विकृति आदि खतरनाक बिमारियों की गिरफ्त में आ रहे है। बताया कि पीएम 2.5 प्रदूषण के इतने छोटे कण होते हैं जो सीधे रक्त प्रवाह में शामिल हो जाते हैं।
दी क्लाइमेट एजेंडा सीनियर रिसर्चर धीरज कुमार दबगरवाल ने पत्रिका को बताया कि किसी शहर के निवासियों के बेहतर स्वास्थ्य के लिए उस शहर की आबोहवा का साफ सुथरा होना अत्यंत आवश्यक होता है। मानव स्वास्थ्य केवल निजी स्वच्छता और पोषण पर ही निर्भर नहीं होता है, बल्कि इस बात पर भी निर्भर करता है कि जिस वातावरण मे हम रह रहे हैं वह कैसा है। स्वस्थ्य वातावरण का प्रभाव न केवल मनुष्य के स्वास्थ्य पर पड़ता है बल्कि उसकी मानसिक, सामाजिक एवं आर्थिक स्थिति पर भी परिलक्षित होता है। बेहतर स्वास्थ्य के लिये यह बेहद महत्त्वपूर्ण है कि हम अपने शहर और उसके परिवेश को कैसे बनाए रखते हैं।
कहा कि बहुत सी ऐसी बीमारियां हैं जिनके प्रसार से न केवल शहरों की सार्वजनिक स्वास्थ्य स्थितियां बद्दतर हुई हैं बल्कि ऐसी स्थितियों ने इन शहरों की अर्थव्यवस्था को भी प्रभावित किया है। यही कारण है कि शहरों को साफ सुथरा रखने के लिये किये जाने वाले अपशिष्ट प्रबंधन को स्वच्छ भारत मिशन के माध्यम से फिर से जन-चेतना का केंद्र बनाया गया। इसका उद्देश्य आम-जन को अपने आस-पास के वातावरण को साफ सुथरा रखने के लिये प्रेरित करना है। हालांकि, यह अभियान झाडू के साथ शुरू होकर कूड़े के डिब्बे तक ही सीमित रह गया। इसके द्वारा कोई विशेष उपलब्धि हासिल नहीं की जा सकी। इसकी शुरुआत तो बहुत प्रभावी हुई, लेकिन इसकी निरंतरता वैसी नहीं रह सकी जैसी कि इससे उम्मीद की गई थी।
पिछले कुछ समय में ठोस कचरे की विभिन्न धाराओं में प्रसंस्करण और उपचार संबंधी चुनौतियां तथा वैज्ञानिक भूमिगत क्षेत्रों में अवशेषों का सुरक्षित निपटान चर्चा का कारण बना हुआ है। हालांकि इस संबंध में सबसे महत्त्वपूर्ण बात यह है कि ये सभी मुद्दे स्वास्थ्य संबंधी परिप्रेक्ष्य में नहीं, बल्कि नगरपालिका द्वारा ठोस अपशिष्ट प्रबंधन में बरती गई लापरवाही के कारण हैं। जैसे कचरों का खुले में जलना, स्पष्ट है कि यदि हम अपशिष्ट प्रबंधन के संबंध में कोई प्रभावी कार्यवाही नहीं करते हैं तो न तो हम एक स्वच्छ एवं स्वस्थ शहर ही बना पाएंगे।
इस संबंध में सबसे अहम् समस्या यह है कि हमारा ध्यान स्वास्थ्य हेतु कचरे का प्रबंधन किये जाने पर केंद्रित होने के बजाय ऊर्जा के लिये कचरे के भंडारण एवं प्रयोग कर केंद्रित हो गया है।
स्पष्ट रूप से इस प्रक्रिया में हमारे द्वारा आर्थिक और पर्यावरणीय दृष्टि से महंगे समाधानों जैसे कि अत्यधिक पूंजी-सघन होने के बावजूद पौधों को जलाए जाने के विकल्प को चुना गया। हालांकि, राष्ट्रीय ग्रीन ट्रिब्यूनल (एनजीटी) न तो मिश्रित कचरे को जलाए जाने की अनुमति ही देता है और न ही किसी भी कंपोस्ट योग्य अथवा पुनर्नवीनीकरण को इस प्रकार निस्तारित करने की अनुमति देता है। इसका कारण यह है कि इस प्रकार की प्रक्रियाओं का प्रवर्तन स्वयं में एक बहुत बड़ी चुनौती है। जहां एक ओर इससे पर्यावरण को हानि पहुंचती है वहीं दूसरी ओर इससे उत्सर्जित होने वाले ज़हरीले धुएं से स्वास्थ्य को भी नुकसान पहुंचता है।
अपने आस-पास के वातावरण को साफ़ रखने के लिये हमें किसी निकाय अथवा तंत्र पर निर्भर रहने की आवश्यकता नहीं है, बल्कि ऐसा हम अपने स्वयं के स्तर पर भी कर सकते हैं। यदि हम सूखे कचरे और ठोस कचरे के जैव-अपघटित घटकों को एक साथ मिलाने के बजाय अलग-अलग करके फेंकते हैं तो न तो केवल इससे इस कचरे का प्रसंस्करण एवं प्रबंधन भली-भाँति हो पाएगा बल्कि खाद और बायोमीथेनेशन (के लिये भी इस कचरे का इस्तेमाल किया जा सकेगा। इसके अतिरिक्त ठोस कचरे का निस्तारण भी आसानी से संभव हो पाएगा। साथ ही कचरे से उत्सर्जित होने वाले ज़हरीले धुएं की जांच करने के लिये उपयुक्त फिल्टरों को भी स्थापित किया जा सकेगा।
शहरी जैव-अपघटित कचरा फार्म क्षेत्र की खाद (जैसे गाय का गोबर) का एक बेहतर विकल्प प्रदान करता है। प्राचीन काल से ही सूक्ष्म जैविक सामग्रियों से समृद्ध इस प्रकार की खाद को काफी मूल्यवान बताया गया है। इस प्रकार की खाद पौधों को मिट्टी से पोषक तत्त्वों को ग्रहण करने में सहायता प्रदान करती है। इसके साथ-साथ यह न केवल हमारे शहरों को साफ करने बल्कि कृषि उत्पादकता में वृद्धि करने तथा मिट्टी की गुणवत्ता को और अधिक बेहतर बनाने का अवसर भी प्रदान करती है।

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