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जानिए क्या रहा BJP की सुपर डुपर जीत का फार्मूला, क्यों बिखर गया गठबंधन

locationवाराणसीPublished: May 25, 2019 04:39:07 pm

Submitted by:

Ajay Chaturvedi

सपा-बसपा का वोट प्रतिशत घटा भी नहीं और बीजेपी का बढ़ भी गया
 
 

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वाराणसी. 17वीं लोकसभा के लिए हुए चुनाव में भारतीय जनता पार्टी की सुपर-डुपर जीत यूं ही नहीं मिली है। बीजेपी और आरएसएस ने मिलकर जो बिसात बिछाई उसकी काट किसी के पास नहीं थी। दरअसल बीजेपी और आरएसएस ने अपना काम को बडे करीने से अंजाम दिया। सपा-बसपा ने भले ही चुनाव अधिसूचना जारी होने के पहले ही गठबंधन की घोषणा कर दी या यूं कहें कि गोरखपुर, फूलपुर उपचुनाव के दौरान ही ये दोनों साथ आ गए और मिलकर काम करना शुरू किया। लेकिन भाजपा की चुनाव तैयारी के बाबत अगर ये कहें कि यूपी में कांग्रेस जब से कमजोर हुई तभी से बीजेपी और आरएसएस ने अपना काम शुरू कर दिया था तो अतिशयोक्ति न होगी।
तीन दशक से चल रहा था काम
राजनीतिक विश्लेषक बताते हैं कि आरएसएस ने पिछले 25-30 सालों से गैर जाटव दलित समुदायों के बीच काफी काम किया। वो बताते हैं कि यूपी में तकरीबन 66 दलित जातियां हैं जिनमें से क़रीब 04-05 जातियों को तो बहुजन पार्टी की राजनीति और सरकारों में प्रतिनिधित्व मिला लेकिन शेष जातियां छूटी गईं। इन शेष जातियों में बीजेपी और आरएसएस ने मजबूती से काम किया। जैसे इन जातियों का सम्मेलन आयोजित करना, इनके हीरो तलाशना, उनकी पहचान को उभारना आदि। इस तरह बीजेपी ने एक ऐसा सामाजिक समीकरण तैयार किया जिसमें गैर जाटव दलित जातियों का एक बड़ा हिस्सा बीजेपी के पास आ गया।
इधर कांग्रेस हुई कमजोर और भाजपा ने शुरू किया काम
राजनीतिक विश्लेषकों की मानें तो यूपी में जब से कांग्रेस कमजोर हुई और क्षेत्रीय दलों का प्रभाव बढ़ा उसी वक्त से भाजपा और आरएसएस ने अपनी जमीन तैयार करनी शुरू कर दी थी। भाजपा और आरएसएस को यह साफ दिख गया कि उत्तर प्रदेश में सपा और बसपा की काट के लिए इनके प्रभुत्व वाली जातियों को अपने साथ जोड़ना होगा। सबसे पहले इसी पर काम शुरू हुआ। बीजेपी को इस बात का एहसास हो गया कि व्यापक हिंदू लामबंदी में सपा बसपा जैसी कुछ बाधाएं हैं इसलिए उन्होंने गैर यादव गैर जाटव जातियों को संगठित करने का काम शुरू किया, उन्हें नेतृत्व में हिस्सेदारी दी।
यादव, जाटव के खिलाफ कुर्मी, कुशवाहा, मौर्य को जोड़ा
ऐसे ही बीजेपी और आरएसएस ने गैर यादव पिछड़ी जातियों के बीच भी काम किया। इनमें भी 40-45 जातियां हैं। इनमें भी यादव के सामने जो जाति खड़ी हो सकती है जैसे कुर्मी, मौर्या, कुश्वाहा के नेतृत्व में बीजेपी ने अति पिछड़ी जातियों को लामबंद किया। इस तरह बीजेपी ने सपा-बसपा विरोधी एक बड़ा सामाजिक गठबंधन बनाया और जातीय राजनीति को उसी के हथियार से ऐसा काटा जिसकी कल्पना आसान नहीं। राजनीतिक विश्लेषकों के अनुसार इस चुनाव में भी सपा- बसपा के वोट प्रतिशथ में कमी नहीं आई लेकिन बीजेपी का वोट प्रतिशत बढ़ा है और ये इन्हीं जातियों के कारण हुआ है।
बीजेपी आरएसएस ने पिछड़ों का समानांतन जु़ड़ाव कायम किया
विश्लेषक बताते हैं कि बीजेपी और आरएसएस तथा उनके अनुषांगिक संगठनों ने जनता के बीच जिस तरह का समानांतर जुड़ाव कायम कर लिया है वैसा किसी भी विपक्षी दल के पास नहीं है। वो कहते हैं, बीजेपी-आरएसएस ने अन्य जातियों में ऐसी भावना भरी कि उनका रिज़र्वेशन भी यादव और जाटव जातियां ख़त्म कर रही हैं। बेशक इन बातों का चुनावों पर भी असर पड़ा।
06 फीसद बड़ा मत प्रतिशत
बता दें कि उत्तर प्रदेश में पीएम नरेंद्र मोदी की बसपा प्रमुख मायावती और समाजवादी पार्टी के अध्यक्ष अखिलेश यादव जैसे दमदार क्षेत्रीय नेताओं से सीधी टक्कर थी। अनुमान लगाया जा रहा था कि यूपी में इस चुनाव में बीजेपी पिछले चुनाव जैसा प्रदर्शन नहीं दोहरा पाएगी। पिछले चुनाव में बीजेपी को प्रदेश की 80 में से 71 सीटों पर जीत मिली थी। इस बार भी वह 62 सीटों पर काबिज हो गई। आंकड़े बताते हैं कि उत्तर प्रदेश में इस बार बीजेपी को प्राप्त वोटों के प्रतिशत में भी इजाफा हुआ है। उसे पिछले लोकसभा चुनाव में मिले 42.30 फीसदी वोटों के मुकाबले इस बार 49.4 प्रतिशत वोट मिले हैं, यानी कि उसके वोटों में छह प्रतिशत की बढ़ोत्तरी हुई है।
गठबंधन में समझौते किए तो गैर फायदेमंद दलों से नाता तोड़ने में देर भी नहीं की
पिछले करीब तीन दशकों में गठबंधन वाली अस्थिर सरकारों के कई दौर देखने को मिले। उन सरकारों की मजबूरियां और नीतियों से हटकर किए गए समझौते भी दिखे। ऐसे में 2014 में भारतीय जनता पार्टी की पूर्ण बहुमत वाली सरकार आई। एनडीए गठबंधन के साथ चुनाव लड़ने के कारण बीजेपी ने गठबंधन धर्म निभाते हुए घटक दलों को भी सरकार में शामिल किया। हालांकि इस गठबंधन में बीजेपी के सामने भी कई मौके आए जब घटक दलों का दबाव उसे सहना पड़ा, लेकिन अपनी मजबूती के चलते बीजेपी को इन दबावों के सामने मजबूर नहीं होना पड़ा। यही कारण है कि पिछले एक-डेढ़ साल में एनडीए से उसके कुछ घटक दलों ने नाता तोड़ लिया। पीएम नरेंद्र मोदी देश के लोगों को यह भरोसा दिलाने में कामयाब रहे कि स्थिर सरकार देने में सिर्फ बीजेपी ही काबिल है।
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