प्रियंका के मैदान में आने के बाद एक बात तो तय है कि अमेठी और रायबरेली की तर्ज पर सपा-बसपा गठबंधन कांग्रेस के लिए बनारस की भी सीट छोड़ देगा। इसकी कवायद शुरू हो चुकी है। अंदर खाने में सपा और कांग्रेस के बीच इस बात पर सैद्धांतिक सहमित बन चुकी है कि सपा, कांग्रेस के लिए सीट छोड़ती है तो कांग्रेस भी उसके लिए महत्वपूर्ण यूपी की राजधानी लखनऊ की सीट छोड़ सकती है।
ये भी पढ़ें- प्रियंका गांधी, नरेंद्र मोदी के खिलाफ बनारस से लड़ती हैं चुनाव तो बदल सकती है फ़िजा वैसे प्रियंका गांधी अगर बनारस से चुनाव लड़ने की सोचती हैं तो गलत नहीं बल्कि उनके राजनीतिक कैरियर के लिहाज से बड़ा डिसीजन होगा। उनका कद इससे बढेगा। कांग्रेस महासचिव के बनारस सीट से मैदान में उतरने से राजनीतिक माहौल भी बदला-बदला होगा। देश ही नहीं समूची दुनिया की निगाह बनारस सीट पर होगी। ऐसे में बनारस जो 2014 में केसरिया रंग में रंग गया था उसका रंग बदल सकता है। और अगर प्रियंका गांधी साझा विपक्ष की उम्मीदवार के तौर पर चुनाव लड़ती हैं तो प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की राह मुश्किल हो सकती है।
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2014 के चुनाव में प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी को कुल 5,81,022 वोट मिले थे उन्होंने निकटतम प्रतिद्वंदी अरविंद केजरीवाल को तकरीबन 03 लाख 77हज़ार वोटों से हराया था। आम आदमी पार्टी के अरविंद केजरीवाल को 2,09,238 वोट मिले थे, जबकि कांग्रेस प्रत्याशी के अजय राय को 75,614 वोट, बीएसपी को तकरीबन 60 हज़ार 579 वोट, सपा को 45291 वोट मिले थे। यानि सपा-बसपा और कांग्रेस का वोट जोड़ दे तो 03 लाख 90 हज़ार 722 वोट हो जाते हैं। मतलब पीएम मोदी की जीत का जो अंतर था वह सभी दलों के संयुक्त वोट बैंक से पीछे हो जाता है। सवाल इस बात का है कि जिस तरह से सपा-बसपा ने रायबरेली और अमेठी में अपने प्रत्याशी न उतारने का फैसला किया है अगर प्रियंका वाराणसी से चुनाव लड़ती हैं तो क्या उनके लिए भी रास्ता खाली कर दिया जाएगा जिसकी सुनगुनी सुनाई देने लगी है।
बात जातिगत समीकरण की करें तो वाराणसी में सबसे ज्यादा बनिया मतदाता करीब 3.25 लाख हैं जो बीजेपी के कोर वोटर हैं। अगर नोटबंदी और जीएसटी के बाद उपजे गुस्से को कांग्रेस भुनाने में कामयाब होती है तो यह वोट कांग्रेस की ओर खिसक सकता है। वहीं ब्राह्मण मतदाता, जिनकी संख्या ढाई लाख के करीब है, माना जाता है कि विश्वनाथ कॉरीडोर बनाने में जिनके घर सबसे ज्यादा टूटे हैं या यूं कहें कि जो सबसे ज्यादा बेघर हुए हैं उनमें ब्राह्मण ही हैं। फिर एससी/एसटी संशोधन बिल को लेकर भी नाराजगी है। यादवों की संख्या डेढ़ लाख है। इस सीट पर पिछले कई चुनाव से यादव समाज बीजेपी को ही वोट करता आ रहा है। लेकिन सपा के समर्थन के बाद इस पर भी सेंध लग सकती है। वाराणसी में मुस्लिमों की संख्या तीन लाख के आसपास है। यह वर्ग उसी को वोट करता है जो बीजेपी को हरा पाने की कूबत रखता हो। यानी कुल मिला कर यह कहा जा सकता है कि प्रियंका के बनारस से आने के बाद बनारस संसदीय सीट पर लड़ाई कांटे की होगी और प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के लि 2014 जैसा माहौल बना पाना उतना आसान भी नहीं होगा।
2014 के चुनाव में प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी को कुल 5,81,022 वोट मिले थे उन्होंने निकटतम प्रतिद्वंदी अरविंद केजरीवाल को तकरीबन 03 लाख 77हज़ार वोटों से हराया था। आम आदमी पार्टी के अरविंद केजरीवाल को 2,09,238 वोट मिले थे, जबकि कांग्रेस प्रत्याशी के अजय राय को 75,614 वोट, बीएसपी को तकरीबन 60 हज़ार 579 वोट, सपा को 45291 वोट मिले थे। यानि सपा-बसपा और कांग्रेस का वोट जोड़ दे तो 03 लाख 90 हज़ार 722 वोट हो जाते हैं। मतलब पीएम मोदी की जीत का जो अंतर था वह सभी दलों के संयुक्त वोट बैंक से पीछे हो जाता है। सवाल इस बात का है कि जिस तरह से सपा-बसपा ने रायबरेली और अमेठी में अपने प्रत्याशी न उतारने का फैसला किया है अगर प्रियंका वाराणसी से चुनाव लड़ती हैं तो क्या उनके लिए भी रास्ता खाली कर दिया जाएगा जिसकी सुनगुनी सुनाई देने लगी है।
बात जातिगत समीकरण की करें तो वाराणसी में सबसे ज्यादा बनिया मतदाता करीब 3.25 लाख हैं जो बीजेपी के कोर वोटर हैं। अगर नोटबंदी और जीएसटी के बाद उपजे गुस्से को कांग्रेस भुनाने में कामयाब होती है तो यह वोट कांग्रेस की ओर खिसक सकता है। वहीं ब्राह्मण मतदाता, जिनकी संख्या ढाई लाख के करीब है, माना जाता है कि विश्वनाथ कॉरीडोर बनाने में जिनके घर सबसे ज्यादा टूटे हैं या यूं कहें कि जो सबसे ज्यादा बेघर हुए हैं उनमें ब्राह्मण ही हैं। फिर एससी/एसटी संशोधन बिल को लेकर भी नाराजगी है। यादवों की संख्या डेढ़ लाख है। इस सीट पर पिछले कई चुनाव से यादव समाज बीजेपी को ही वोट करता आ रहा है। लेकिन सपा के समर्थन के बाद इस पर भी सेंध लग सकती है। वाराणसी में मुस्लिमों की संख्या तीन लाख के आसपास है। यह वर्ग उसी को वोट करता है जो बीजेपी को हरा पाने की कूबत रखता हो। यानी कुल मिला कर यह कहा जा सकता है कि प्रियंका के बनारस से आने के बाद बनारस संसदीय सीट पर लड़ाई कांटे की होगी और प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के लि 2014 जैसा माहौल बना पाना उतना आसान भी नहीं होगा।
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