बता दें कि यूपी विधानसभा चुनाव से पहले कांग्रेस ने शीला दीक्षित को मुख्यमंत्री का चेहरा प्रोजेक्ट कर बड़ी चाल चली थी। उसी वक्त बनारस के पूर्व सांसद डॉ राजेश मिश्र को प्रदेश का उपाध्यक्ष बनाया गया। कांग्रेस की उस कवायद को राजनीतिक हल्कों में ब्राह्मण कार्ड के रूप में लिया गया। लेकिन कुछ ही दिनों के बाद कांग्रेस अखिलेश यादव के नेतृत्व वाली समाजवादी पार्टी की गोद में जा बैठी। इसके साथ ही पार्टी ने जिस ब्राह्मण कार्ड के मार्फत शुरूआती लाभ लेने की चाल चली थी वह पूरी तरह से बैठ गई। इसका खामियाजा भी पार्टी को उठाना पड़ा। राजनीतिक विश्लेषक बताते हैं कि विधानसभा चुनाव में करारी शिकस्त मिलने के बाद लगा था कि पार्टी में व्यापक पैमाने पर फेर बदल होगा। लेकिन पार्टी ने ऐसा कुछ भी नहीं किया। नेतृत्व परिवर्तन की बाबत तब कांग्रेस की ओर से तर्क दिया गया कि नवंबर तक पार्टी का संगठनात्मक चुनाव होना ही है, फिर प्रदेश में नगर निकाय चुनाव भी होने हैं लिहाजा नेतृत्व परिवर्तन से पार्टी को नुकसान हो सकता है। ऐसे में अब जबकि बीजेपी ने डॉ पांडेय को सूबे की कमान सौंप दी है, कांग्रेस के लिए आगामी चुनावों के मद्देनजर यूपी में पार्टी का नेतृत्व सौंपने को लेकर गंभीर समस्या पैदा कर दी है। राजनीतिक विश्लेषक कहते हैं कि पार्टी के पास कोई कद्धावर नेता ही नहीं जिसे खड़ा कर वह चुनावी वैतरणी पार कर सके। वे यह भी कह रहे हैं कि डॉ. महेंद्र नाथ पांडेय जमीनी नेता हैं, छात्र राजनीति से लेकर विधानसभा होते वह लोकसभा तक पहुंचे और यूपी और केंद्र दोनें में मंत्री रहे बावजूद इसके वह उतने आक्रामक या फायर ब्रांड नेता नहीं। लेकिन कांग्रेस के पास तो वह भी नहीं।
राजनीतिक विश्लेषक कहते हैं कि जहां तक छात्र राजनीति से निकल कर संसद तक पहुंचने और प्रदेश में ऊंचा ओहदा पाने की बात करें तो डॉ. महेंद्र नाथ पांडेय, मनोज सिन्हा, भरत सिंह के साथ कांग्रेस के डॉ राजेश मिश्र ही हैं। जहां तक आक्रमाकता का सवाल है तो निश्चित तौर पर डॉ पांडेय के सामने डॉ मिश्र कहीं ज्यादा आक्रामक हो सकते हैं। फिर अगर बनारस की राजनीति की बात करें तो बीजेपी ने कभी बनारस का हिस्सा रहे चंदौली के सांसद डॉ पांडेय को यह कमान सौंपी है। बता दें कि डॉ पांडेय सांसद भले चंदौली के हैं, उनकी जन्मभूमि चंदौली हो सकती है लेकिन कर्मभूमि उनकी बनारस ही रही। ठीक उसी तरह जैसे पंडित कमलापति त्रिपाठी वाराणसी के होते हुए उनकी कर्मभूमि चंदौली रही। ऐसे में अब कांग्रेस के अंदरखाने एक बार फिर से चर्चाओं का बाजार गर्म है। सूबे की कमान को लेकर आगामी लोकसभा चुनाव को लेकर जो चर्चाएं कांग्रेस में चल रही हैं वह भी खासतौर पर बनारस मे तो वहां एक तरफ कांग्रेस उपाध्यक्ष राहुल गांधी, गुलाम नबी आजाद के करीबी डॉ राजेश मिश्र का नाम उछाला जा रहा है तो वहीं गांधी परिवार (सोनिया गांधी) के नजदीकी औरंगाबाद हाउस के प्रतिनिधि राजेशपति त्रिपाठी और उनके पुत्र ललितेशपति त्रिपाठी हैं। संगठनात्मक चुनाव नजदीक है। इस लिहाज से पार्टी में दोनों खेमें फिर से सक्रिय हो गए हैं। सूत्र बताते हैं कि आगामी लोकसभा चुनाव में बनारस से कौन पार्टी प्रत्याशी होगा इसे लेकर भी खेमे बंदी चल रही है। जहां एक तरफ डॉ राजेश मिश्र प्रबल दावेदार हैं तो वहीं औरंगाबाद हाउस फिर से बनारस की सियासत में अपनी पैठ बनाने के लिए ललितेशपति त्रिपाठी को दावेदार के रूप में पेश करने में जुट गया है। इसकी वजह भी साफ है कि महागठबंधन लोकसभा चुनाव में आता है तो मिर्जापुर सीट सपा के खाते में जाएगी। ऐसे में बनारस संसदीय सीट के लिए डॉ राजेश मिश्र, ललितेशपतित्र त्रिपाठी और प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के खिलाफ चुनौती देने वाले अजय राय यानी तीन-तीन दावेदार होंगे। ऊपरी तौर पर भले खेमेबंदी नकारने की बात की जा रही हो पर अंदरखाने खजुरी (डॉ राजेश मिश्र) और औरंगाबाद हाउस (पंडित कमलापति त्रिपाठी) के बीच जद्दोजहद जारी है। बनारस संगठन को लेकर भी खेमेबंदी चरम पर है। लेकिन सूबे की कमान की बात करें तो उस मामले में निश्चित तौर पर बीजेपी ने कांग्रेस को करारी मात देते हुए भावी महागठबंधन को भी बड़ा झटका दिया है। भाजपा ने देश और यूपी के शीर्ष पदों पर हर जाति के वोट बैंक को साधते हुए जहां बड़ा रणनीति लाभ हासिल करने के करीब है तो वहीं बिखरी सपा, हासिये पर पहुंची बसपा और 27 साल से यूपी की सियासत के किनारे पहुंच चुकी कांग्रेस की तुलना में बीजेपी अभी से कहीं ज्यादा मजबूत दिखने लगी है। राजनीतिक विश्लेषक तो यहां तक कह रहे कि चाहे कांग्रेस हो या महागठबंधन के नेता कोई भी मोदी और योगी सरकार की खामियों पर भी आक्रामक नहीं हो पा रहा। ऐसे में यूपी के नए बीजेपी अध्यक्ष अपनी सधी वाक शैली में पार्टी की रीति-नीति व कम से कम केंद्र सरकार की उपलब्धियों का बखूबी बखान कर सकते हैं। फिर उनके ऊपर किसी तरह का कोई दाग-धब्बा भी नहीं है। चाहे वह राज्य में मंत्री रहे हों या केंद्र में उन्होंने मूल्यों की ही राजनीति की है। लिहाजा विपक्ष के पास उन पर निजी तौर पर हमला करने का भी मौका नहीं मिलेगा। फिर बीएचयू से लेकर पूर्वांचल के ब्राह्मण बिरादरी में उनकी पैठ पार्टी के लिए कहीं ज्यादा फायदेमंद होगी ऐसा राजनीतिक गलियारों में चर्चा-ए-आम है।