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बलिया के जाबाज क्रांतिकारी के बलिदान को आज भी नहीं भूल पाता देश

locationवाराणसीPublished: Aug 15, 2017 07:53:00 am

Submitted by:

sarveshwari Mishra

जीविका चलाने के लिए अंग्रेजों की फौज में हुए थे भर्ती

Mangal pandey

क्रांतिकारी मंगल पाण्डेय

वाराणसी. स्वतंत्रता संग्राम के अमर जवान मंगल पाण्डेय जिन्होंने भारत को अंग्रेजों से मुक्त कराने की पहली हुंकार भरी थी। यह एक ऐसे आम सैनिक थे जिन्होंने अंग्रेजी हुकुमत के बेजा फरमानों के खिलाफ आवाज उठाई थी। उन्होंने अपने प्राण दे दिए पर घुटने नहीं टेके।
भारत माता को गुलामी की जंजीरों से आजाद कराने के लिए संघर्ष करने वाले इस वीर से तो एक बार अंग्रेज शासन भी बुरी तरह से कांप गया था और सही मायने में देश में आजादी का बिगुल मंगल पांडे ने ही फूंका था। उनके बलिदान को ये देश कभी नहीं भूला सकता है।
 जीविका चलाने के लिए अंग्रेजों की फौज में हुए थे भर्ती
मंगल पांडे का जन्म 30 जनवरी 1831 को संयुक प्रांत के बलिया जिले के नगवा गांव में हुआ था। इनके पिता का नाम दिवाकर पांडे तथा माता का नाम अभय रानी था। ब्राह्मण कुल में जन्मे मंगल पांडे को जीविका के लिए अंग्रेजों की फौज में भर्ती होना पड़ा था और इसी कारण साल 1849 में मात्र 22 साल की उम्र में मंगल पांडे ब्रिटिश ईस्ट इंडिया कंपनी की सेना में शामिल हुए थे।
 31 मई को हुई थी पूरे देश में विद्रोह की तैयारी
पूरे देश में एक ही दिन 31 मई 1857 को क्रांति आरम्भ करने का निश्चय किया गया था, लेकिन 29 मार्च 1957 को बैरकपुर छावनी के सिपाही मंगल पाण्डेय के विद्रोह से उठी ज्वाला वक्त का इंतजार नहीं कर सकी। इसलिए मंगल पाण्डेय को 1857 का पहला शहीद माना जाता है।
 कोर्ट मार्सल से फांसी तक का सफर
अंग्रेजी हुकुमत ने छ: अप्रैल को फैसला सुनाया कि मंगल पाण्डेय को 18 अप्रैल को फांसी चढ़ा दिया जाय। परन्तु बाद में यह तारीख 8 अप्रैल कर दी गई। ताकि विद्रोह की आग अन्य रेजिमेंटों में भी न फैल जाय। मंगल पाण्डेय के प्रति लोगों में इतना सम्मान पैदा हो गया था कि बैरकपुर का कोई जल्लाद फांसी देने को तैयार नहीं हुआ। बाद में कलकत्ता के चार जल्लाद बुलाकर 8 अप्रैल 1857 को जबाज क्रांतिकारी को फांसी पर चढ़ा दिया गया। मंगल पाण्डेय को फांसी पर चढ़ाकर जिस अंग्रेजी हुकुमत को अंग्रेजों ने खत्म करना चाहा था वह और फैल चुकी थी। देखते ही देखते इसने पूरे देश को अपने आगोश में ले लिया।
बगावत की वजह
ईस्ट इंडिया कंपनी के अत्याचार से भारत प्रताड़ित था। भारतीयों के अंदर दबी जुबान से अंग्रेजों के खिलाफ विरोध के बिगुल फूट चुके थे लेकिन ये आक्रोश तब फूटा जब कंपनी की सेना की बंगाल इकाई में ‘एनफील्ड पी.53’ राइफल में नई कारतूसों का इस्तेमाल शुरू हुआ। इन कारतूसों को बंदूक में डालने से पहले मुंह से खोलना पड़ता था और भारतीय सैनिकों के बीच ऐसी खबर फैल गई कि इन कारतूसों को बनाने में गाय तथा सुअर की चर्बी का प्रयोग किया जाता है। उनके मन में ये बात घर कर गयी कि अंग्रेज हिन्दुस्तानियों का धर्म भ्रष्ट करने पर अमादा हैं क्योंकि ये हिन्दू और मुसलमानों दोनों के लिए नापाक था।
9 फरवरी 1857 को जब ‘नया कारतूस’ देशी पैदल सेना को बांटा गया तब मंगल पाण्डेय ने उसे लेने से इनकार कर दिया। इसके परिणाम स्वरूप अंग्रेजों ने उनके हथियार छीन लिये जाने व वर्दी उतार लेने का हुक्म हुआ। मंगल पाण्डेय ने उस आदेश को मानने से इनकार कर दिया, 29 मार्च सन् 1857 को उनकी राइफल छीनने के लिये जब अंग्रेज अफसर मेजर ह्यूसन आगे बढे तो मंगल ने उन पर आक्रमण कर दिया। मंगल पांडे ने मदद के लिए साथियों की ओर देखा लेकिन किसी ने उनकी मदद नहीं की लेकिन मंगल पांडे ने हिम्मत नहीं हारी और उन्होंने ह्यूसन को मौत के घाट उतार दिया।
प्रथम स्वतंत्रता संग्राम
मंगल पांडे तो खुद फांसी पर लटक गए लेकिन उनकी मौत ने प्रथम स्वतंत्रता संग्राम का बिगुल बजा दिया था। उनकी फांसी के ठीक एक महीने बाद ही 10 मई सन् 1857 को मेरठ की सैनिक छावनी में भी बगावत हो गयी और यह विद्रोह देखते-देखते पूरे उत्तरी भारत में फैल गया, हालांकि इस संग्राम को अंग्रेजों ने दबा दिया लेकिन वो भारतीयों के अंदर उनके खिलाफ भरी नफरत को खत्म नहीं कर पाए और उन्हें आगे चलकर भारत को छोड़ना ही पड़ा।
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