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फरवरी 1507में शिवरात्रि के अवसर पर गुरू नानक देव बनारस की यात्रा पर आये थे। गुरूबाग का गुरूद्वारा जहां पर स्थापित है वहां पर पहले सुंदर बाग था। यहां पर गुरू नानक देव शबद-कीर्तन कर रहे थे। इससे प्रभावित होकर बाग के मालिक पंडित गोपाल शास्त्री उनके शिष्य बन गये। गुरु नानक देव के आकर्षण प्रभाव से नगर में उनकी जय-जयकार होने लगी। इसी बीच पंडित चतुरदास को ईष्या होने लगी है। पंडित चतुरदास ने शास्त्रार्थ में कई विद्वानों को पराजित किया था। पंडित चतुरदास ईष्या के कारण गुरू नानक देव के पास गये। गुरू नानक देव उन्हें देख कर मुस्कुराते हुए कहा कि आप को मुझसे कुछ प्रश्र करते हैं तो इस बाग के भीतर एक कुत्ता है, आप उसे लेकर मेरे पास आये। पंडित जी तुरंत बाग में गये तो उन्हें वह जानवर मिल गया। जिसे लेकर वह गुरू नानक देव के पास पहुंचे। गुरू नानक देव ने जब उस पर अपनी दृष्टि डाली तो जानवर की जगह सुंदर धोती, जनेऊ, तिलक, माला धारण किये हुए एक विद्वान बैठा नजर आया। लोगों के पूछने पर बताया कि एक समय यह विद्वान था लेकिन उसके मन में ईष्या व अंहकार भरा हुआ था काशी में आने वाले विद्वानों को वह शास्त्रार्थ में पराजित कर भगा देता था। एक महापुरुष से काफी देर तक उसका वाद-विवाद हुआ था इस पर महापुरूष ने उसे श्राप दे दिया था। वह विद्वान जब महापुरूष से माफी मांगने लगा तो उन्होंने कहा कि कलयुग में गुरूनानक जी का आगमन होगा और उनकी कृपा दृष्टि से ही तेरा उद्धार होगा। इसके बाद गुरू नानक देव ने कहा कि कर्मकांड और बाह्य आडंबर में लिप्त लागों को मोक्ष की प्राप्ति तक तक नहीं होती है जब तक वह निश्चय के साथ परम पिता का स्मरण नहीं करते हैं। गुरू नानक देव के अलौकिक वचन सुनने के बाद पंडित चतुरदास को अपनी गलती का अहसास हुआ और वह श्रद्धा के साथ गुरू के चरण में नतमस्तक हो गया। यह सब सुनने के बाद पंडित गोपाल शास्त्री ने कहा कि गुरू महाराज के चरण पडऩे से मेरा बाग पवित्र हो गया है। ऐसे में यह बाग आपको समर्पित है। इसके बाद यह बाग गुरूद्वारे के नाम से प्रसिद्ध हो गया।
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