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प्रियंका गांधी, नरेंद्र मोदी के खिलाफ बनारस से लड़ती हैं चुनाव तो बदल सकती है फ़िजा

locationवाराणसीPublished: Apr 14, 2019 01:29:25 pm

Submitted by:

Ajay Chaturvedi

-प्रियंका के आने पर समूचा विपक्ष होगा एक साथ-इस पहल से बढ़ेगा प्रियंका का कद -इससे पहले लोहिया, राजनारायण और सुषमा लगा चुके हैं अपने राजनीतिक कैरियर पर दांव

प्रियंका गांधी

प्रियंका गांधी

वाराणसी. अगर कोई यह कयास लगा रहा है कि 2019 में बनारस संसदीय सीट से मुकाबला एकतरफा होगा तो यह उसकी भूल है। इस बार भी या तो 2014 की कहानी दोहराई जाएगी या उससे कहीं ज्यादा रोचक मुकाबला हो सकता है बनारस सीट पर। सियासी हल्के में यह तय माना जा रहा है कि बनारस में विपक्ष भाजपा को वॉकओवर नहीं देने जा रहा है। यहां मतों का विभाजन नहीं होगा। इसके लिए कोशिशें जारी हैं। यहां तक कि इस सीट के लिए कांग्रेस समाजवादी पार्टी बनारस की अपनी सीट छोड़ भी सकती है। या यूं कहें कि सब मिल कर ही चुनाव लड़ेंगे।
सियासी गलियारों में एक बार फिर से कयास लगाए जाने लगे हैं कि प्रियंका गांधी बनारस से नरेंद्र मोदी के खिलाफ चुनाव लडेंगी। बताया यहां तक जा रहा है कि प्रियंका ने इसके लिए हामी भी भर दी है। हालांकि प्रियंका ने मार्च में ही यह पूछ कर इस बात के संकेत दे दिए थे कि बनारस चुनाव लड़ जाऊं? प्रियंका को नजदीक से जानने वाले कहते हैं कि उनमें डर नाम की चीज ही नहीं, वह बड़े से बड़ा जोखिम उठाने से घबराती नहीं हैं। ऐसे में वह अगर बनारस से चुनाव लड़ने की बात उछालती है तो इसके पीछे कहीं न कहीं उनके अंदर यह चल रहा है कि उन्हें पार्टी की खातिर अपना बलिदान देने से पीछे नहीं हटना चाहिए।
वैसे अगर प्रियंका बनारस से चुनाव लड़ती हैं तो पूरी भाजपा और नरेंद्र मोदी के लिए भी कांटों भरा रास्ता हो जाएगा। बता दें कि इससे पहले डॉ राम मनोहर लोहिया, राज नारायण और सुषमा स्वराज जैसे कई नेता ऐसा बड़ा निर्णय लेकर अपना उदाहरण पेश कर चुके हैं। जवाहर लाल नेहरू को चुनौती देने के लिए 1962 में डॉ लोहिया ने फूलपुर से चुनाव लड़ा था। इंदिरा गांधी को 1971 और 1977 में समाजवादी नेता राज नारायण ने राय बरेली में चुनौती दी थी। सोनिया गांधी ने जब 1999 में कर्नाटक की बेल्लारी लोकसभा सीट से चुनाव लड़ने का फैसला लिया था तो सुषमा स्वराज वहां उन्हें चुनौती देने पहुंची थीं। 1971 में राज नारायण चुनाव हार गए, लेकिन 1977 में उन्होंने इंदिरा गांधी को हरा कर हिसाब चुकाया था। डॉ लोहिया और सुषमा स्वराज भी चुनाव हार गए थे लेकिन हार से डॉ. लोहिया और सुषमा का कद कम नहीं हुआ, बल्कि बढ़ा ही। कुछ मुकाबले होते ही ऐसे हैं। हार और जीत से कहीं अधिक महत्व लड़ने का होता है। नेता के हौसले का होता है।
ऐसे में अगर प्रियंका गांधी बनारस से चुनाव लड़ने का मन बनाती हैं तो कहीं से गलत नहीं है। इससे उनका राजनीतिक भविष्य बिगड़ने की बजाय उनका कद बढ़ेगा। फिर एक बात और कि ऐसी स्थिति में बनारस की राजनीतिक फि़जा बदली-बदली होगी। पूरी दुनिया की निगाह बनारस सीट पर होगी। तब बनारस जो 2014 में केसरिया रंग में रंग गया था वहां का रंग बदल सकता है। अगर प्रियंका गांधी यहां पर विपक्ष के संयुक्त उम्मीदवार के तौर पर चुनाव लड़ती हैं तो प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की राह मुश्किल हो सकती है। 2014 के चुनाव में प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी को कुल 5,81,022 वोट मिले थे। निकटतम प्रतिद्वंदी अरविंद केजरीवाल को तकरीबन 03 लाख 77हज़ार वोटों से हराया था। आम आदमी पार्टी के अरविंद केजरीवाल को 2,09,238 वोट मिले, जबकि कांग्रेस प्रत्याशी के अजय राय को 75,614 वोट, बीएसपी को तकरीबन 60 हज़ार 579 वोट, सपा को 45291 वोट मिले थे। यानि सपा-बसपा और कांग्रेस का वोट जोड़ दे तो 03 लाख 90 हज़ार 722 वोट हो जाते हैं। मतलब पीएम मोदी की जीत जो अंतर था वह सभी दलों के संयुक्त वोट बैंक से पीछे हो जाता है। सवाल इस बात है कि जिस तरह से सपा-बसपा ने रायबरेली और अमेठी में अपने प्रत्याशी न उतारने का फैसला किया है अगर प्रियंका वाराणसी से चुनाव लड़ती हैं तो क्या उनके लिए भी रास्ता खाली कर दिया जाएगा।
राजनीतिक विश्लेषक कहते है कि सियासी संघर्ष में नेताओं के हौसले से बड़ा फर्क पड़ता है। खासकर तब जब अपनी टीम, विपक्ष के खिलाफ अपेक्षाकृत कमजोर हो। ऐसे में जब कमजोर टीम का नेता लड़ने का हौसला दिखाता है, अपना बलिदान देने को तैयार होता है ति टीम का मनोबल चरम पर पहुंच जाता है। उधर विरोधी की ताकत कम हो जाती है। प्रियंका में ऐसा नेतृत्व देने की क्षमता है। यह तो तभी साबित हो गया जब उन्होंने पूर्वांचल का प्रभारी बनना स्वीकार कर लिया।
वो पूर्वांचल जो अब बीजेपी का गढ बन चुका है। इस हिस्से में प्रियंका कांग्रेस को तीन-चार सीट भी दिलाने में सफल रहीं तो यह बड़ी कामयाबी होगी। मतलब प्रियंका पूर्वी उत्तर प्रदेश को अपनी कर्मभूमि चुन कर एक साहसिक फैसला पहले ही कर चुकी हैं। अब अगर वो चुनाव लड़ने का फैसला लेती हैं तो उनके मैदान में उतरते ही मुकाबला दिलचस्प हो जाएगा। इसका असर कई सीटों पर पड़ेगा। चुनावी खेल का स्तर बढ़ जाएगा। यह भी मुमकिन है कि उस परिस्थिति में सभी दल प्रियंका के समर्थन में आ जाएं और नरेंद्र मोदी को उनके ही गढ़ में घेर लिया जाए। पिछली बार वहां अरविंद केजरीवाल ने चुनौती दी थी। तब कांग्रेस और बीएसपी ने अपने उम्मीदवार उतारे थे। जिसकी वजह से केजरीवाल पौने चार लाख वोट से चुनाव हार गए। अगर इस बार प्रियंका खुद साझा उम्मीदवार के तौर पर मैदान में उतरेंगी तो स्थिति एकदम दूसरी होगी। उनके मैदान में उतरने से मुकाबला करीबी हो जाएगा। इस मुकाबले का असर पूरे प्रदेश और देश पर पड़ेगा। यह भी मुमकिन है कि खुद को दांव पर लगा कर प्रियंका इस चुनावी संग्राम का स्तर इतना ऊपर उठा दें कि बीजेपी की सारी गणित गड़बड़ा जाए।
वैसे ऐसे राजनीतिक विश्लेषक भी हैं जिनका मानना है कि कांग्रेस को ऐसा दांव नहीं खेलना चाहिए जिसमें हार निश्चित हो। बनारस से चुनाव लड़ने पर प्रियंका किसी भी सूरत में नहीं जीतेंगी। इसलिए उन्हें ऐसी सीट से चुनाव लड़ना चाहिए, जिसे जीतना आसान हो। इस लिहाज से इलाहाबाद बेहतर है। यहां उनका पुश्तैनी घर है। यह भी संभव है कि प्रियंका के चुनाव लड़ने पर सपा-बसपा अपना उम्मीदवार नहीं उतारें। ऐसा हुआ तो उनका मुकाबला बीजेपी की रीता बहुगुणा जोशी से होगा और जो अपेक्षाकृत आसान मुकाबला होगा।
वहीं कुछ अन्य विश्लेषकों का कहना है कि इलाहाबाद सीट से अगर प्रियंका जीत भी हासिल कर लेती हैं तो वो बात नहीं होगी जो बनारस में नरेंद्र मोदी को चुनौती देने में है। इलाहाबाद या फिर ऐसी किसी भी कम मुश्किल सीट से चुनाव लड़ने का असर उससे सटी चार-पांच सीटों पर होगा जबकि बनारस में नरेंद्र मोदी को चुनौती देने का असर पूरे देश पर होगा। वो कहते हैं कि ऐसे में कांग्रेस को यह दांव खेलना चाहिए ताकि मोदी को सीधे तौर पर चुनौती दी जा सके। और यह काम सोनिया या राहुल गांधी के स्तर से नही संभव है, यह दायित्व प्रियंका को ही दिया जाना चाहिए। नरेंद्र मोदी से सीधी लड़ाई का जोखिम प्रियंका उठाती हैं तो यह उनके जीवन का पहला चुनाव होगा और ऐसा चुनाव होगा जिसे दुनिया लंबे समय तक याद रखेगी।
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