वाराणसी

तार्किक और वैज्ञानिक कसौटी पर खरी उतरने वाली शिक्षा से ही बचेगा लोकतंत्र और होगा देश का समुचित विकास

शिक्षा व्यवस्था अपनी प्रक्रियाओं व विषय वस्तु में सैद्धांतिक रूप से तो शिक्षित करने में प्रत्येक स्तर पर वैज्ञानिकता की ही मंजूरी देती है, लेकिन वास्तविकता में ऐसा होता दिखता नहीं।

वाराणसीMar 09, 2019 / 09:24 pm

Ajay Chaturvedi

वैज्ञानिक प्रयोग

प्रो ओंकार सिंह
दुनिया में आबादी के आधार पर दूसरी पायदान पर खड़े देश भारत के लोकतांत्रिक मूल्यों को सशक्त करने में यहां की शिक्षा प्रणाली की अहम भूमिका है। सर्व विदित है कि भारत के संविधान के अंतर्गत प्रावधानित लोकतांत्रिक प्रणाली में संख्या के आधार पर ही जनमत तय किया जाना निर्धारित है। ऐसी दशा में जब भी किसी निर्णय तक पहुंचने में संख्याबल का सहारा लिया जाता है, तब यह बहुत जरूरी हो जाता है कि इस प्रक्रिया के समस्त प्रतिभागियों में लिए जाने वाले निर्णय के समस्त विकल्पों की समुचित जानकारी हो और प्रत्येक को अपने अधिकार का उपयोग करने से पूर्व समस्त परिस्थितियों का मूल्यांकन करने की क्षमता होनी चाहिए। स्पष्टतः इंगित है कि लोकतंत्र के सफल संचालन में नागरिकों के औपचारिक रूप से शिक्षित होने के साथ ही विश्लेषण क्षमता का होना नितांत आवश्यक है। यहां यह समझा जाना चाहिए कि जब भी कोई समुदाय अपने लोकतांत्रिक अधिकारों के प्रयोग से पूर्व अपने समाज व विद्यमान सभ्यता को आगे बढ़ाने के कारकों तथा वृहद हित व अहित का आंकलन नहीं करता है तो संख्याबल पर लिए जाने वाले निर्णयों के अपने तरह के विषम परिणाम हो सकते हैं। विभिन्न पहलुओं के समग्रता से विश्लेषण के लिए शिक्षण प्रणाली में वैज्ञानिक सोच पैदा करने की क्षमता की कमी घातक सिद्ध हो सकती है।
यदि सभ्यता के वर्तमान स्वरूप की प्रगति का आंकलन किया जाय तो परिलक्षित होता है कि चौथी औद्योगिक क्रांति की ओर अग्रसर इस समाज ने सूचना प्रौद्योगिकी के भरपूर इस्तेमाल से आज इंटरनेट संचालित प्रणालियां तैयार तो कर ली हैं लेकिन अभी भी ऐसी बहुत सी प्रथाएं प्रकाश में आती हैं जिनसे कहीं न कहीं प्रथम वैज्ञानिक चिंतन की स्पष्ट रूप से कमी परिलक्षित होती है। आज हम पौराणिक काल से चंदा मामा कहे जाने वाले चांद पर जीवन ढूंढने पहुंच कर वहां नई संभावनाएं तलाश रहे हैं और शिक्षा व विज्ञान की ताकत से ही पूरी दुनिया को संचार क्रांति से अद्वितीय तरीके से जोड़ दिया है। इन सबके बीच हम आए दिन देश के विभिन्न क्षेत्रों से नाना प्रकार के आस्था से जुड़े प्रकरणों के वैज्ञानिकता की कसौटी पर खरा न उतर पाने के कारण सामाजिक द्वंद्व की स्थित देखने को मिलती है। ऐसी परिस्थितियों में कई विचारधारा का टकराव होता है और सामाजिक समरसता प्रभावित होती है। यहां किसी न किसी प्रकरण का उल्लेख किए बिना यह समझना आवश्यक है कि वर्तमान परिप्रेक्ष्य के तकनीकी युग में इस प्रकार की दकियानूसी सोच हमारी सभ्यता के उन्नयन में बाधक बनती है और हमारी सृजनात्मक युवा पीढ़ी द्वारा तकनीकी विकास से जीवनोत्थान के सार्थक प्रयासों पर कुठाराघात करती है।
वर्तमान शिक्षा प्रणाली के प्राथमिक शिक्षा से उच्च शिक्षा स्तर तक के समस्त पाठ्यक्रम व पाठ्यचर्या के आंकलन से स्पष्ट होता है कि शिक्षा प्रणाली समग्रता से वैज्ञानिक चिंतन व तर्क पर ही केंद्रित है। लेकिन कहीं न कहीं कतिपय कमियों के कारण ही इस शिक्षा प्रणाली से लाभान्वित होने वालों में समुचित वैज्ञानिक सोच व तार्किकता की कमी दिखाई देती है। इन्ही कारणों से परंपराओं व विश्वास के आाधार पर बड़ी आबादी अपनी मनः स्थिति तय करने लगती है। ऐसा होना दर्शाता है कि हमारी शिक्षा व्यवस्था अपनी प्रक्रियाओं व विषय वस्तु में हालाकि सैद्धांतिक रूप से तो शिक्षित करने में संपूर्णता से प्रत्येक स्तर पर वैज्ञानिकता की ही मंजूरी देती है। लेकिन वास्तविकता में ऐसा नहीं होता है। इस कारण से वैज्ञानिकता को प्रोत्साहित करने में शिक्षा प्रदाताओं की भूमिका महत्वपूर्ण हो जाती है। उदाहरण के तौर पर यदि हमारे नागरिकों द्वारा रखे जाने वाले नाना प्रकार के उपवासों व त्योहारों को करने के कारणों को आंका जाय तो स्थापित होगा कि उपवास रखने और त्योहार मनाने को विभिन्न परंपराओं, आस्था तथा रूढियों से क्रियान्वित कराया जाता है लेकिन इसके पीछे वैज्ञानिकता की कसौटी पर इसे कसने पर ज्ञात होता है कि उपवास वास्तव में मानव शरीर को स्वस्थ रखने के लिए आवश्यक है तथा मौसम व साल में विभिन्न समयानुसार इन्हें आम जन मानस द्वारा क्रियान्वित करने के लिए त्योहार के रूप में आस्था से जोड़ कर क्रियान्वित कराया जाता है। लेकिन वर्तमान समाज में शिक्षा का समुचित प्रचार प्रसार हो जाने से इन परंपराओं को आस्था के साथ वैज्ञानिक नजरिए से उपयुक्त होने से जोड़ कर देखा जाना चाहिए।
इस ज्ञान आधारित युग में शिक्षा प्रदाताओं को शिक्षार्थियों के मानस पटल पर ऐसी छाप डालनी चाहिए कि उनमें प्रत्येक क्षण होने वाली घटनाओं व गतिविधियों को विश्लेषण के आधार पर ही स्वीकार या अस्वीकार करने की हिम्मत पैदा हो। सर्वांगीण परिस्थितियों का आंकलन करने से यह निष्कर्ष निकलता है कि समाज की सभी समस्याओं का हल देने तथा अपेक्षाओं को पूरा करने की क्षमता शिक्षा व वैज्ञानिक सोच में ही निहित है। हम सभी जिनमें प्रत्येक स्तर के शिक्षक, माता-पिता, घर-परिवार के सदस्यों तथा रिश्तेदारों सहित सभी सम्मिलित है। इनके समग्र प्रयास से ही नई पीढ़ी को मानसिक रूप से इतना सशक्त बना देना चाहिए कि वे किसी भी तथ्य को स्वीकार व क्रियान्वित करने से पूर्व उनका वैज्ञानिक दृष्टिकोण से परीक्षण करें। यहां यह उल्लेख करना समीचीन होगा कि आवश्यक नहीं कि विज्ञान का भरपूर प्रयोग करने वाले वैज्ञानिकों का प्रत्येक नजरिया वैज्ञानिकता की कसौटी पर खरा उतरे क्योंकि प्रायः यह देखा जाता है कि अच्छे खासे पढ़े लिखे लोग भी किसी दिन को किसी काम के लिए उपयुक्त या अनुपयुक्त मानने अथवा किसी कार्य को करने के उपयुक्त मुहूर्त निकलवाने जैसे विचार रखते हैं। ऐसे में वैज्ञानिक चिंतन को औपचारिक शिक्षा से पृथक देखा जाना चाहिए। यह संभव है कि आज तक का ज्ञानकोष व शिक्षा व्यवस्था कतिपय प्रश्नों के उत्तर देने में सक्षम न हो लेकिन तार्किक उत्तर प्राप्त करने के प्रयास समस्त शिक्षित तथा जागरूक वर्ग को करने का प्रयास करना चाहिए। वैज्ञानिकता के साथ दी जाने वाली तार्किक तथा उपयुक्त शिक्षा से ही हम एक ऐसे सुदृढ समाज को तैयार कर सकेंगे जो सदैव गुण दोष के आधार पर ही सारे तार्किक निर्णय लेने की क्षमता रखता हो।
प्राथमिक से उच्च स्तर तक की शिक्षा व्यवस्था के पास समाज को उपयुक्त दिशा देने की सर्वाधिक संभावनाएं तथा अधिकार प्राप्त होने के दृष्टिगत इस व्यवस्था द्वारा ऐसे प्रयास किए जाने चाहिए कि वैज्ञानिक सोच समाज की अन्योन्यक्रियाओं का अभिन्न हिस्सा न बन जाए और आचरण, व्यवहार, कार्यशैली तथा जीवन शैली वैज्ञानिक दृष्टिकोण पर ही आधारित हो। यह विश्वास पैदा किया जाना चाहिए कि वैज्ञानिक सोच से ही जीवन की हर समस्या का समाधान किया जा सकता है और इसके लिए आज तक की सभी उपलब्धियों को समझने और समझाने की जरूरत है। समय-समय पर आस्था विश्वास के सहारे किए जाने वाले कार्यक्रमों से तात्कालिक रूप से अवैज्ञानिक चिंतन को बढ़ाने वाले प्रभावों से हम नई पीढ़ी को स्वस्थ चिंतन दे पाएंगे। इस प्रकार से समाज को होने वाले दूरगामी दुष्परिणामों से बचने और सभ्यता के साधारणीय विकास के लिए शिक्षा के माध्यम से वैज्ञानिकता को प्रोत्साहित किया जाना होगा। इससे ही संख्याबल के आधार पर चलने वाले लोकतांत्रिक मूल्यों को इसके प्रतिभागियों में वैज्ञानिक सोच पैदा कर सुदृढ किया जा सकता है।
नोट-लेखक मदन मोहन मालवीय प्रौद्योगिकी विश्वविद्यालय, गोरखपुर के संस्थापक कुलपति और हरकोर्ट बटलर प्राविधिक विश्वविद्यालय, कानपुर में यांत्रिक अभियंत्रण के प्रोफेसर हैं। प्रस्तुत लेख, लेखक के निजी विचारों पर आधारित है।

 

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