scriptST और आदिवासियों के हक के लिए बनारस में निकला विरोध मार्च | protest march in Benaras for rights of ST and tribals | Patrika News

ST और आदिवासियों के हक के लिए बनारस में निकला विरोध मार्च

locationवाराणसीPublished: Mar 02, 2019 06:32:59 pm

Submitted by:

Ajay Chaturvedi

केंद्र सरकार से की मांग सुप्रीम कोर्ट में करे दमदार पैरवी। तीन सूत्री मांग पत्र किया जारी।

protest march in Benaras for rights of ST and tribals

protest march in Benaras for rights of ST and tribals

वाराणसी. अनुसूचित जनजातियों और आदिवासियों के लिए वन निवासी अधिनियम 2006 को सख़्ती से लागू करने की मांग को लेकर बनारस के लोगों ने शनिवार को निकाला विरोध मार्च। इससे पहले कचहरी स्थित अम्बेडकर पार्क में धरना प्रदर्शन किया। धरना प्रदर्शन को संबोधित करते हुए लोगों ने कहा, जल, जंगल और जमीन पर आदिवासियों के प्राकृतिक हक़ को अरसे से छीनने की कोशिश की जा रही है। प्राकृतिक संसाधनों की लूट पूंजीपतियों को हमेशा से आकर्षित करती रही है साथ ही यह अपेक्षाकृत आसान रास्ता भी रही है। प्रदर्शन के दौरान ‘ गांव छोडब नही, जंगल छोडब नही। माय माटी छोडब नही, लड़ाय छोडब नही’ और ‘ कल का गीत लिए होंठो पर आज लड़ाई जारी है ‘ आदि जनगीत गाए गए।
साझा संस्कृति मंच वाराणसी और जनांदोलनों के राष्ट्रीय समन्वय (एनएपीएम) की ओर से आयोजित इस कार्यक्रम को संबोधित करते हुए वक्ताओं ने कहा की एक लंबे संघर्ष के बाद आदिवासी और अन्य परंपरागत वन निवासियों को वनभूमि पर अधिकार देने के लिए वन अधिकार कानून आया। इस कानून के प्रचार-प्रसार में कमी, दावा फार्म भरने एवं सत्यापन की जटिलता, वन विभाग के अङंगे तथा नौकरशाहों की उदासीनता ने इसके प्रभावी क्रियान्वयन पर गंभीर सवाल खङे किए हैं। फिर भी लोगों ने भारी मशक्कत से दावे लगाए तथा नियम के अनुसार साक्ष्य भी प्रस्तुत किए। अकेले उत्तर प्रदेश में लगभग 06 लाख 15 हजार व्यक्तिगत दावे वन अधिकार समिति के समक्ष प्रस्तुत हुए है, जिसे वन अधिकार समिति, ग्राम सभा तथा उपखंड स्तर समितियों ने जांच के बाद जिला स्तरीय समितियों को अंतिम निर्णय के लिए भेजा। लेकिन जिला स्तरीय समितियों ने बिना मौका मुयायना और जांच के लगभग 03 लाख 54 हजार दावे अमान्य कर दिए। दावेदार को अमान्य होने की लिखित सूचना देने के प्रावधानों के बादवजूद उन्हे सुचना तक नहीं दी गई। इसके कारण दावेदार अपील करने के अपने संवैधानिक अधिकार से बंचित रह गए।
बताया कि अमान्य दावे अन्य राज्यों की अपेक्षा मध्यप्रदेश में सबसे अधिक रहे। तत्कालीन राज्य सरकार द्वारा इस अमान्य दावे के आंकड़े को सुप्रीम कोर्ट में प्रस्तुत कर दिया गया, जबकि लोग इन दावों की जांच की मांग राज्य सरकार से लगातार करते रहे।
सुप्रीम कोर्ट में वन्य जीव समूहों द्वारा दायर याचिका को लेकर फ़ैसला आया कि 27 जुलाई 2019 तक 16 राज्यों के 10 लाख से अधिक वनभूमि पर काबिज आदिवासी एवं अन्य परम्परागत वन निवासियों को बेदखल किया कर दिया जाए। ऐसे में इन सबके दावे अमान्य हो गए हैं। सबसे दुखद यह कि केंद्र सरकार ने इस प्रकरण की सुनवाई में अपना पक्ष रखने के लिए कोई वकील ही नहीं भेजा। गनीमत की बात है पुनर्विचार याचिका की सुनवाई करते हुए न्यायालय ने अपने पिछले आदेश पर स्थगनादेश दिया है जो की स्वागत का विषय है।
वैसे प्रथम दृष्टया मूल याचिका और सरकार द्वारा केस की अनदेखी करने के तरीके से यह वाद एक प्रकार की सोची समझी साजिश के प्रतीत होती है। इस पूरी साज़िश में वन अधिकार कानून को सरकारी संस्थाओं द्वारा कमजोर किया जा रहा है ताकि कारोबारी और तथा कथित वन्य जीव समूहों की मदद की जाए। इतनी बड़ी संख्या में आदिवासी जनों को विस्थापित किया जाना बेहद अन्यायपूर्ण कार्रवाई है। हमारे सामने सवाल खड़ा है कि क्या एक बार फिर ऐतिहासिक अन्याय दुहराया जाएगा? देश की लगभग दो तिहाई वनभूमि आदिवासी भूमि है जो पांचवीं अनुसूची में आती है। ऐसे में अब बङी तादाद में लोगों के अपनी पैतृक आजीविका से बंचित होने का खतरा पैदा हो गया है।
प्रमुख मांंगें

1- सरकार आदिवासी एवं अन्य परंपरागत वन निवासियों के हकों की रक्षा के लिए मजबूतीसे अपना पक्ष सुप्रीम कोर्ट में रखे।
2- वन अधिकार कानून को प्रभावी तरीके से लागू करे एवं कानून को कमजोर करने के किसी भी प्रयास को रद्द करे तथा सुप्रीम कोर्ट के आदेश के आलोक में ज़बरन बेदखली को रोकें।
3- वन अधिकार कानून के प्रावधानों के अनुसार सामुदायिक वन संसाधन का संरक्षण, पुनर्जीवित या संरक्षित तथा प्रबंध करने का अधिकार ग्राम सभा को दिया जाना है । इसे प्रावधान को तत्काल लागू किया जाए।
ये थे मौजूद

विरोध मार्च और धरना प्रदर्शन में प्रमुख रूप से जागृति राही, रामजनम, एकता शेखर, डॉ अनूप श्रमिक, मुकेश उपाध्याय, रवि शेखर, धनंजय, सानिया, रितेश, ओमप्रकाश, बृजेश, दया, कामता आदि मौजूद रहे।
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