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तुलसी के हुए सालिग्राम, जाने विवाह की कथा

locationवाराणसीPublished: Oct 31, 2017 05:44:16 pm

Submitted by:

Sunil Yadav

तुलसी और सालिग्राम के विवाह के बाद शुरु हुए मांगलिक कार्य

Tulsi marriage ceremony organized in Bhatewar

तुलसी और सालिग्राम के विवाह के बाद शुरु हुए मांगलिक कार्य

कार्तिक शुक्ल पक्ष की एकादशी पर घर-घर गन्ने का मंडप सजाकर देवी तुलसी और भगवान सालिग्राम का विवाह संपन्न हुआ तथा ऋतु फलों से इनका पूजन किया गया। हरिबोधिनी या देव प्रबोधनी एकादशी के नाम से जाना जाने वाला यह दिन सनातन धर्मानुयायी के लिए बेहद ख़ास होता है। पूजन के साथ ही आज के दिन से मांगलिक कार्यों की शुरुआत हो गई। मान्यताओं के अनुसार भगवान विष्णु क्षीर सागर में शयन के दौरान सभी मांगलिक कार्यों पर मनाही होती है। जिसके बाद आज भगवान विष्णु चार माह बाद अपनी योग मुद्रा से जगे है।
तुलसी और सालिग्राम के विवाह की कथा

शिवमहापुराण के अनुसार पुरातन समय में दैत्यों का राजा दंभ जो भगवान विष्णुभक्त का भक्त था। उसे जब लम्बे समय तक पुत्र रत्न की प्राप्ती नहीं हई तो उसने दैत्यों के गुरु शुक्राचार्य को गुरु बनाकर श्रीकृष्ण मंत्र की प्राप्ती की और पुष्कर में जाकर भगवान विष्णु की घोर तपस्या की। जससे प्रसन्न होकर भगवान विष्णु ने उसे पुत्र रत्न प्राप्त होने का वरदान दिया। भगवान विष्णु के वरदान के बाद दंभ के यहां पुत्र का जन्म हुआ। जिसका नाम शंखचूड़ रखा गया। शंखचूड़ जब बड़ा हुआ तो उसने भी पिता की भाति पुष्कर में जाकर ब्रम्हा जी को प्रसन्न करने के लिए घोर तपस्या की।
शंखचूड़ की तपस्या से प्रसन्न होकर ब्रह्माजी ने शंखचूड़ से मनचाहा वरदान मांगने को कहा तो शंखचूड़ ने कहा की मैं देवताओं के लिए अजेय हो जाऊं। तह ब्रह्माजी ने उसे वरदान देते हुए कहा कि तुम बदरीवन जाओ और वहां धर्मध्वज की पुत्री तुलसी तपस्या कर रही है, तुम उसके साथ विवाह कर लो। ब्रह्माजी के कहने पर शंखचूड़ बदरीवन गया। वहां तपस्या कर रही तुलसी को देखकर वह भी आकर्षित हो गया। तब भगवान ब्रह्मा वहां आए और उन्होंने शंखचूड़ को गांधर्व विधि से तुलसी से विवाह करने के लिए कहा। शंखचूड़ ने ऐसा ही किया। इस प्रकार शंखचूड़ व तुलसी सुख पूर्वक विहार करने लगे।
शंखचूड़ बहुत वीर था। उसे वरदान था कि देवता भी उसे हरा नहीं पाएंगे। उसने अपने बल से देवताओं, असुरों, दानवों, राक्षसों, गंधर्वों, नागों, किन्नरों, मनुष्यों तथा त्रिलोकी के सभी प्राणियों पर विजय प्राप्त कर ली। उसके राज्य में सभी सुखी थे। वह सदैव भगवान श्रीकृष्ण की भक्ति में लीन रहता था। स्वर्ग के हांथ से निकल जाने पर देवता ब्रह्माजी के पास गए और ब्रह्माजी उन्हें लेकर भगवान विष्णु के पास गए। देवताओं की बात सुनकर भगवान विष्णु ने बोला कि शंखचूड़ की मृत्यु भगवान शिव के त्रिशूल से निर्धारित है। यह जानकर सभी देवता भगवान शिव के पास आए।
देवताओं की बात सुनकर भगवान शिव ने चित्ररथ नामक गण को अपना दूत बनाकर शंखचूड़ के पास भेजा। चित्ररथ ने शंखचूड़ को समझाया कि वह देवताओं को उनका राज्य लौटा दे, लेकिन शंखचूड़ ने कहा कि महादेव के साथ युद्ध किए बिना मैं देवताओं को राज्य नहीं लौटाऊंगा। भगवान शिव को जब यह बात पता चली तो वे युद्ध के लिए अपनी सेना लेकर निकल पड़े। शंखचूड़ भी युद्ध के लिए तैयार होकर रणभूमि में आ गया। देखते ही देखते देवता व दानवों में घमासान युद्ध होने लगा। वरदान के कारण शंखचूड़ को देवता हरा नहीं पा रहे थे। शंखचूड़ और देवताओं का युद्ध सैकड़ों सालों तक चलता रहा। अंत में भगवान शिव ने शंखचूड़ का वध करने के लिए जैसे ही अपना त्रिशूल उठाया, तभी आकाशवाणी हुई कि- जब तक शंखचूड़ के हाथ में श्रीहरि का कवच है और इसकी पत्नी का सतीत्व अखंडित है, तब तक इसका वध संभव नहीं होगा।
आकाशवाणी सुनकर भगवान विष्णु वृद्ध ब्राह्मण का रूप धारण कर शंखचूड़ के पास गए और उससे श्रीहरि कवच दान में मांग लिया। शंखचूड़ ने कवच बिना किसी संकोच के दान कर दिया। इसके बाद भगवान विष्णु शंखचूड़ का रूप बनाकर तुलसी के पास गए और विजय होने की सूचना दी। यह सुनकर तुलसी बहुत प्रसन्न हुई और पति रूप में आए भगवान का पूजन किया। इसी के साथ तुलसी का सतीत्व भंग होते ही भगवान शिव ने युद्ध में त्रिशूल से शंखचूड़ का वध कर दिया।
कुछ समय बाद तुलसी को ज्ञात हुआ कि यह मेरे साथ छल हुआ तो वह रोने लगी। और कहा आज आपने छलपूर्वक मेरा धर्म नष्ट किया है और मेरे स्वामी को मार डाला। आप अवश्य ही पाषाण ह्रदय हैं, अत: आप मेरे श्राप से अब पाषाण होकर पृथ्वी पर रहें। तब भगवान विष्णु ने कहा देवी- तुम मेरे लिए भारत वर्ष में रहकर बहुत दिनों तक तपस्या कर चुकी हो। अब तुम इस शरीर का त्याग करके दिव्य देह धारणकर मेरे साथ आन्नद से रहो। तुम्हारा यह शरीर नदी रूप में बदलकर गंडकी नामक नदी के रूप में प्रसिद्ध होगा। तुम पुष्पों में श्रेष्ठ तुलसी का वृक्ष बन जाओगी और सदा मेरे साथ रहोगी। तुम्हारे श्राप को सत्य करने के लिए मैं पाषाण (शालिग्राम) बनकर रहूंगा। गंडकी नदी के तट पर मेरा वास होगा। नदी में रहने वाले करोड़ों कीड़े अपने तीखे दांतों से काट-काटकर उस पाषाण में मेरे चक्र का चिह्न बनाएंगे। धर्मालुजन तुलसी के पौधे व शालिग्राम शिला का विवाह कर पुण्य अर्जन करेंगे।
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