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काशी में कुश्ती और नागपंचमी का कॉंबिनेशन, जानें क्या है परंपरा

locationवाराणसीPublished: Aug 04, 2019 07:26:02 pm

Submitted by:

Ajay Chaturvedi

डॉ संपूर्णानंद स्पोर्ट्स स्टेडियम के कोच गोरखनाथ से पत्रिका की खास बातचीत- काशी में नागपंचमी पर कुश्ती-पहलवानी की है सदियों पुरानी है परंपरा-गांवों की सुरक्षा से भी जुड़ी है यह परंपरा-स्टेडियम में 30 साल बाद नागपंचमी पर होगा भव्य आयोजन-स्टेडियम में पहली बार लड़कियों की गदा-डंबल प्रतियोगिता-परमानंदपुर में भी जोरशोर से चल रही है नागपंचमी की तैयारी

कुश्ती कोच गोरखनाथ और पहलवान रोहित

कुश्ती कोच गोरखनाथ और पहलवान रोहित

डॉ अजय कृष्ण चतुर्वेदी


वाराणसी. धर्म नगरी काशी में पुरानी कहावत है सात वार नौ त्योहार। हर त्योहार के साथ कुछ न कुछ परंपरा, सोच, वैज्ञानिकता जुड़ी है। ऐसा ही है नागपंचमी और काशी का सदियों पुराना रिश्ता। नागपंचमी को इस पौराणिक शहर के लोग जहां नागकुंआ पर जा कर नागदेवता की पूजा करते हैं। घर-घर में नाग देवता की तस्वीर लगा कर उन्हें दूध व लावा चढाया जाता है। छोटे-छोटे बच्चे सुबह से ही नाग देवता की तस्वीर लेकर, छोटे गुरु का, बड़े गुरु का नाग ले लो के स्लोगन के साथ नाग देवता की तस्वीर बेंचने निकल पड़ते हैं। सपेरे दिन भर पिटारे में नाग ले कर घूमते हैं। नाग देवता का दर्शन कराते हैं। महुवर भी खेला जाता है। इसके साथ ही काशी के प्राचीन हर अखाड़े में कुश्ती की प्रतियोगिता होती है। जोड़ी, गदा, डंबल की प्रतियोगिता होती है। इस कुश्ती और नागपंचमी के कॉंबिनेशन सहित बनारस की पहलवानी से जुड़े मुद्दों को लेकर पत्रिका ने बात की डॉ संपूर्णानंद स्पोर्ट्स स्टेडिम के कोच गोरखनाथ यादव से। प्रस्तुत हैं बातचीत के संपादित अंश…

पहला ही सवाल नागपंचमी और कुश्ती का क्या रिश्ता है, गोरखनाथ का जवाब होता है कि यह बहुत पुरानी परंपरा है। बचपन से देखते आ रहे हैं। इस दिन को गांव से लेकर शहर तक कोई ऐसा अखाड़ा नहीं जिसे सजाया न जाता हो। वहां कुश्ती न होती हो। गदा और डंबल न फेरे जाते हों। पहलवान अखाड़े की मिट्टी न लगाते हों। कहा कि आज भले ही मैट आ जाने के बाद मिट्टी के अखाड़े धीरे-धीरे बंद होने लगे हैं लेकिन नागपंचमी के दिन अखाड़े जरूर खुलते हैं। इसकी तैयारी सप्ताह-पंद्रह दिन पहले से ही शुरू हो जाती है।
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गोरखनाथ बताते हैं कि पहले ग्रामीण जीवन था। हर त्योहार को हंसी-खुशी मिल जुल कर मनाने की परंपरा थी। इसी लिहाज से नागपंचमी को भी पहले घर-घर नाग देवता की पूजा होती थी जो अब भी होती है। गांव में तब मनोरंजन के साधन नहीं थे, खेल कूद के नाम पर कुश्ती, कबड्डी, दौड़,ऊंची कूद, लंबी कूद जैसे खेल थे। लिहाजा इन सभी का प्रदर्शन होता था। कुश्ती के साथ कौन पहलवान कितना फेरी गदा फेरता है, कौन कितना हाथ डंबल फेरता है इसका भी प्रदर्शन होता था। धीर-धीरे इसे प्रतियोगिता का दर्जा मिल गया। कुश्ती भी ईनामी हो गई। एक से बढ कर एक पहलवान आते अखाड़े में और अपने जूनियर संग कुश्ती लड़ते। इस कुश्ती से जूनियर को अपने सीनियर से कुश्ती के नए दांव भी मालूम होते थे।
बताया कि ग्रामीण जीवन था, खाना और शरीर बनाना ही सबकी पसंद व लत होती थी। फिर ये भी होता था कि अगर गांव में पहलवान न होंगे तो गांव की सुरक्षा कैसे होगी। सुरक्षा के इस भाव से लगभग हर घर का बच्चा अखाड़े में जरूर जाता था। यहां किसी तरह का बंधन नहीं था। पहलवानी किसी जाति विशेष का खेल नहीं रहा। पंडित जी के घर से भी बच्चे आते और बाबू साहब के घर से भी, यादव परिवार के बच्चे तो आते ही थे। अखाड़े में कौन किस पर भारी पड़ा यह उसके कुश्ती कौशल से परखा जाता था। कहा कि ये सब बहुत व्यावहारिक था।
स्टेडियम का कुश्ती हॉल
अब अखाड़े धीरे-धीरे बंद होते जा रहे हैं क्यों के जवाब में उन्होंने कहा कि मनोरंजन का यह साधन प्रतियोगिता में बदला तो पहले दुनिया भर में मिट्टी के अखाड़ों पर ही प्रतियोगिता होती रही। तब भारत का परचम लहराता रहा। लेकिन पश्चिम का प्रभाव बढता गया तो मिट्टी का स्थान मैट ने ले लिया। मैट के आते ही हम पिछड़ने लगे।
मैट पर पिछड़ने की खास वजह क्या है, जवाब मिलता है कि मिट्टी की कुश्ती धीमी होती है। दूसरे इस पर पहलवान को अपेक्षित सपोर्ट नहीं मिलता। इसके विपरीत मैट की कुश्ती तेज होती है, वहां पहलवान को दांव लगाने के लिए मैट सपोर्ट करता है। इसलिए पश्चिमी पहलवान इसमे बाजी मारने लगे। यह ठीक उसी तरह है जैसे हमारा राष्ट्रीय खेल हाकी। हाकी पहले मिट्टी पर खेली जाती थी पर पश्चिम के प्रभाव के चलते टर्फ आया और इसमें भी तेजी आ गई। इसके साथ ही भारत हाकी में लगातार पिछड़ता चला गया।
बनारस को कभी पहलवानी, कुश्ती की नर्ससी कहा जाता रहा, अब फिर से कैसे उस मुकाम को हासिल करेंगे के जवाब में गोरख कहते हैं कि फिलहाल तो स्टेडियम और डीएलडब्ल्यू में ही मैट है। स्टेडियम में बच्चे आ रहे हैं। इस पर रोजाना अभ्यास करके ये बच्चे भी मेडल पा रहे हैं। अभी गोविंद ने एशियन गेम्स में दूसरा स्थान पाया फिर हाल ही में हुए एशियन गेम में सचिन यादव ने भी दूसरा स्थान बनाया है। फिर से बनारस कुश्ती में परचम लहराएगा।
गोरखनाथ ने कहा अगर खेल प्रेमी संस्थाएं और सरकार ज्यादा से ज्यादा स्थान पर मैट की उपलब्धता सुनिश्चित करा दे तो बनारस फिर से कुश्ती की नर्सरी बन जाएगा। दिल्ली, पंजाब और हरियाणा को हम पीछे छोड़ देंगे। नेशनल इंटरनेशनल गेम्स और ओलंपिक में भी मेडल लाएंगे।
कुश्ती कोच ने बताया कि करीब 40 साल बाद इस नागपंचमी पर स्टेडियम में फिर से कुश्ती प्रतियोगिता होगी। भव्य आयोजन होगा। पहली बार यहां लड़कियों की गदा और डंबल प्रतियोगिता होगी। यह सब हमारे आरएसओ चंद्रमौली पांडेय की सोच रही। उन्होंने ही इसका खाका तैयार किया था। हम ऐसा करके उन्हें सच्ची श्रद्धांजलि दे पाएंगे।

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