प्रशासनिक लापरवाही की इंतिहां
प्रत्यक्षदर्शियों की मानें तो शाम 5.30 बजे निर्माणाधीन फ्लाइओवर के पिलर नंबर 79-80 के बीच का बीम अचानक नीचे गिरा। 5.35 बजे गिरे बीम के इर्द-गिर्द भीड़ जमा हो गई। चीख-पुकार से पूरा इलाका गूंज उठा। पुलिस को सूचना दी गई। आधे घंटे बाद यानी छह बजते-बजते घटना स्थल पर भीड़ इतनी जमा हो गई कि पूछिए नहीं। शाम 7.00 बजे पहली क्रेन पहुंची, तब जा कर शुरू हुआ राहत कार्य। 7.45 बजे बीम के नीचे दबे लोगों को निकालने का काम शुरू हुआ। यानी 2.15 घंटे तक लोग बीम के नीचे दबे रहे। वह भी लोहे की सरिया और कंक्रीट के भारी भरकम बीम के नीचे दबे लोगों की हालत का अंदाजा सहज ही लगाया जा सकता है।
प्रत्यक्षदर्शियों की मानें तो शाम 5.30 बजे निर्माणाधीन फ्लाइओवर के पिलर नंबर 79-80 के बीच का बीम अचानक नीचे गिरा। 5.35 बजे गिरे बीम के इर्द-गिर्द भीड़ जमा हो गई। चीख-पुकार से पूरा इलाका गूंज उठा। पुलिस को सूचना दी गई। आधे घंटे बाद यानी छह बजते-बजते घटना स्थल पर भीड़ इतनी जमा हो गई कि पूछिए नहीं। शाम 7.00 बजे पहली क्रेन पहुंची, तब जा कर शुरू हुआ राहत कार्य। 7.45 बजे बीम के नीचे दबे लोगों को निकालने का काम शुरू हुआ। यानी 2.15 घंटे तक लोग बीम के नीचे दबे रहे। वह भी लोहे की सरिया और कंक्रीट के भारी भरकम बीम के नीचे दबे लोगों की हालत का अंदाजा सहज ही लगाया जा सकता है।
प्रत्यक्षदर्शिों की मानें तो इतने बड़े हादसे को भी पुलिस और प्रशासन ठीक काफी हल्के में लिया। किसी अफसर को मौके पर पहुंचने की जल्दी नहीं थी। ऐसे में मलबे में दबे लोग कराहते रहे,चीखते रहे। सवा दो घंटे के बाद जब धीरे-धीरे एक-एक कर घायलों और मृतकों के शव निकाले जाने शुरू हुए तो माहौल गमगीन हो गया लेकिन लोगों के चेहरे पर गुस्सा साफ था। उधर अस्पतालों की हालत यह कि इमरजेंसी भी इसके लिए पहले तैयार नहीं थी। आनन-फानन में किसी को बीएचयू ट्रामा सेंटर भेजा गया तो किसी को दीनदयाल जिला अस्पताल तो किसी को शिव प्रसाद गुप्त अस्पताल तो कोई बगल के रेलवे अस्पताल में ले जाया गया। कई ऐसे लोग भी मलबे से निकले जिनके परिजन पहुंच गए थे मौके पर तो वे अपनों को लेकर निजी अस्पताल चले गए। इस पूरे घटनाक्रम में एक मात्र बीएचयू अस्पताल प्रशासन ही था जिसने सबसे पहले तत्परता दिखाई। सोशल मीडिया पर सूचना वायरल की कि हादसे के घायलों के मुफ्त इलाज को वो तैयार है। बीएचयू को छोड़ दें तो सरकारी स्वास्थ्य सेवाएं दम तोड़ती ही नजर आईं।
पूर्व की घटनाएं ये कोई पहला अवसर नहीं है, 23 फरवरी 2005 को जब दशाश्वमेध घाट पर पहला आंतकी विस्फोट हुआ था तब भी प्रशासन सो रहा था। तत्कालीन डीएम ने उसे इतना हल्के में लिया था कि आतंकी विस्फोट को सामान्य सिलेडर विस्फोट करार दिया था। उस घटना में सात लोगों की जान गई थी और 12 लोग घायल हो गए थे। पुलिस का हाल यह कि 28 फरवरी 2005 को विश्वनाथ मंदिर के पास कंटेनर मिला जिसकी शिनाख्त बाद में पाक निर्मित कंटेनर के रूप में हुई थी, उसे भी हल्के में लिया था। 28 जुलाई 2005 को श्रमजीवी विस्फोट जिसमें पांच लोगों की जान गई और दर्जनों । तब भी राहत प्रबंधन की कलई खुली थी। सात मार्च 2006 को कैंट स्टेशन और संकट मोचन ब्लास्ट में तो जिला प्रशासन औंधे मुंह गिरा था, उस वक्त भी कुल 18 लोगों की जान गई थी और 53 लोग घायल हुए थे। तब भी शिव प्रसाद गुप्त सहित सभी सरकारी अस्पतालों में घायलों के लिए कोई समुचित व्यवस्था न थी। मौके से जैसे तैसे पहले लाशें निकाली गईं जिनके चीथड़े उड़ गए थे। घायलों को क्षेत्रीय लोगों ने अस्पताल पहुंचाया था। फिर 23 नवंबर 2007 को कचहरी में हुए ब्लास्ट के बाद भी वही मंजर। परिजनों को अपने लोगों को खोजने में अस्पताल दर अस्पताल घूमना पड़ा था। उस घटना में नौ की मौत हुई थी औ र 50 जख्मी हुए थे। फिर सात दिसंबर 2010 को शीतला घाट पर उस वक्त विस्फोट हुआ जब गंगा आरती चल रही थी। उस घटना के बाद भी प्रशासन नहीं जागा और नन्ही स्वस्तिका की मौत हो गई। यानी पांच घटनाएं 40 मौत और 167 से ज्यादा घायल। प्रशासन के लिए कोई मायने नहीं रखता। उसके बाद जब 2010 में सूर्य ग्रहण लगा तो घाटों पर ऐसा सैलाब उमड़ा कि लोगों के दम घुटने लगे। कई अचेत हो गए। लोलारक कुंड में भी इसी तरह की घटना दो बार हो चुकी है। लेकिन प्रशासन को उससे कोई सरोकार नहीं।
अब जिस तरह से मंगलवार की घटना हुई शहर में चारों तरफ एक ही चर्चा है कि अगर तत्काल राहत कार्य शुरू हो जाता तो कइयों की जान बचाई जा सकती थी। आखिर कब चेतेगा जिला प्रशासन, कब होगा संजीदा यह यक्ष प्रश्न हर किसी की जुबान पर है, लेकिन प्रशासन तो अब मुआवजा बांटने में जुट गया है।