पंडित द्विवेदी ने कहा कि लोक साहित्य व लोक गीतों को “कैसेट कल्चर” ने खराब कर दिया। फूहड़पन और अश्लीलता भर गई। हालांकि ऐसे गीतों की उम्र ज्यादा नहीं होती लेकिन इसने एक बीज बो दिया। बदलाव से घबराना नहीं चाहिए बस उसकी दिशा सही हो। “बनारस का रस ‘बना रस’ बना है, खलल डालना उसमें मना है।” इसके साथ बनारस, गंगा पर आधारित लोकगीतों और विवाह यज्ञोपवीत, और तमाम लोक संस्कृति से जुड़े गीतों को सुनाया और उनकी विशद व्याख्या की।
कार्यशाला के दूसरे सत्र में “काशी का शास्त्रीय संगीत और घराने” विषय को सम्बोधित करते हुए पद्मश्री डॉ राजेश्वर आचार्य ने कहा कि अब बनारस में घराना अब न के बराबर है। अब कला के नाम पर आत्मविज्ञापन हो रहा है। आत्माभिव्यक्ति और आत्मविज्ञापन में अंतर को समझना होगा। संगीत पूरे विश्व की भावमयी भाषा है। शब्दों से ज्यादा स्वरों से बातें कही जा सकती है। संगीत आह की राह और आनन्द की थाह है। संगीत ‘ईगो डिजॉल्व’ करने के लिए था लेकिन अब संगीत ‘ईगो एंलार्ज’ करने के लिए प्रयोग हो रहा है। संगीत को ‘हाईहील’ बना दिया गया है। संगीत अपनत्व की भाषा है। अब घराना टूट गया है मकाना बढ़ गया है। जिन जीवन मूल्यों का हम रोना रो रहे हैं उन्हें हम आधुनिकता के नाम पर खो रहे हैं।
कार्यशाला में काशी प्रदक्षिणा समिति के उमाशंकर गुप्ता को काशी में उनके द्वारा कराई जा रही 20 से अधिक यात्राओं के लिए सम्मानित किया गया। अध्यक्षता प्रो एस एन उपाध्याय ने की जबकि संचालन प्रो पी के मिश्र ने किया। डॉ अवधेश दीक्षित ने आभार जताया। इस मौके पर डॉ सुजीत चौबे, डॉ विकास सिंह, आचार्य योगेंद्र, दीपक तिवारी, सत्यवान यादव, रामेश्वर गुप्ता, गोपेश पांडेय, बलराम यादव, अभिषेक यादव, अनिमेष मिश्र, हरिशंकर यादव आदि उपस्थित थे।