सांची आने वाले विदेशियों को आसपास के और बुद्धिस्ट साइट पर लाने की बातें खूब होती हैं। करीब 8 बुद्धिस्ट साइट को जोडक़र बुद्धिस्ट सर्किट बनाने की बात भी होती है, जिससे देशी ही नहीं विदेशी पर्यटकों को भी यहां लाया जा सके। लेकिन दुर्भाग्य से यह सब प्रयास सिर्फ बातों तक ही सीमित हैं। सांची के अलावा किसी बुद्धिस्ट साइट की ओर शासन-प्रशासन और खुद आर्कियोलॉजी विभाग का भी ध्यान नहीं है। यही कारण है कि जिले के ही लोगों को नहीं पता कि विदिशा नगर से मात्र 12 किमी दूर मुरेल खुर्द की पहाड़ी पर सांची से भी ज्यादा स्तूपों की श्रंखला है। यहां बौद्ध विहार भी है, पहले बुद्ध की प्रतिमा भी थी जो अब सांची संग्रहालय में है, लेकिन यहां तक पर्यटकों को लाने के लिए न तो स्तूपों तक पहुंचने का रास्ता बना है और न ही पहाड़ी पर ऐसा कोई सूचना पटल है जिससे पर्यटकों और पुरातत्व प्रेमियों को इन स्तूपों के बारे में जानकारी मिल सके।
विश्व धरोहर के रूप में विख्यात सांची के बौद्ध स्तूपों के ही समकालीन अन्य बौद्ध साइट भी सांची और विदिशा के आसपास ही हैं। इनमें सतधारा, सुनारी, अंधेर, मुरेलखुर्द, जाफरखेड़ी और ग्यारसपुर हैं। इनमें से विदिशा से 12 किमी दूर स्थित मुरेल खुर्द की बुद्धिस्ट साइट जिले के ही लोगों के लिए अंजान सी है। जो लोग बमुश्किल यहां पहुंच भी जाते हैं वे केवल निचले हिस्से के 10-12 स्तूप देखकर वापस आ जाते हैं। कोई सूचना पटल भी यहां नहीं है, जिससे स्तूपों के बारे में कुछ जानकारी मिल सके। विदिशा जिला मुख्यालय से मात्र 12 किमी दूर धनोरा हवेली से आगे मुरेल खुर्द की पहाड़ी है। चट्टानी इलाका है। इसी पहाड़ी पर बौद्ध स्तूपों की श्रंखला है। यहां स्तूूपों की संख्या सांची के स्तूपों से भी अधिक दिखती है। गिनती करें तो छोटे-बड़े करीब 40 स्तूप यहां तीन हिस्सों में बंटे हुए हैं। अधिकांश लोगों को यहां इतने सारे स्मारकों की जानकारी ही नहीं, जो पहुंच भी जाते हैं उनमें से ज्यादातर केवल पहाड़ी के पहले हिस्से में मौजूद 10-12 स्तूपों को देखकर वापस आ जाते हैं, जबकि इस पहले हिस्से से और ऊपर की ओर बड़े स्तूपों और बौद्ध विहार की मौजूदगी है।
स्तूपों तक कैसे जाना है पता नहीं
मुरेलखुर्द पर 40 स्तूपों का जखीरा है, पर्यटकों के लिए यहां बहुत कुछ है, लेकिन यहां तक पहुंचने के लिए कौन सा रास्ता मुफीद है, यह पहचानना भी आसान नहीं। पहाड़ी पर जहां से चाहो चढ़ जाओ, लेकिन बाद में परेशानी होती है। कहीं कोई सीढिय़ां या व्यवस्थित रास्ता अथवा कोई संकेतक भी नहीं है कि कहां से कैसे जाना है। आमतौर पर ऊपर तो बाइक से भी पहुंचना आसान नहीं है। किसी तरह पहुंच भी गए तो वहां के 8-10 स्तूप देखकर वापस आ जाते हैं, लेकिन स्तूपों की बड़ी और महत्वपूर्ण श्रंखला और ऊपर है। ऊपर ही विशाल बौद्ध विहार है, जिसकी पक्की सीढिय़ां अब भी व्यवस्थित हैं। मंदिर के अवशेष भी हैं, जहां कभी बुद्ध की प्रतिमा बताई जाती है।
मुरेलखुर्द: स्तूपों का एक लाइन भी विवरण नहीं
आर्कियोलॉजिस्ट बताते हैं कि सांची के स्तूपों की खोज 1818 में हुई थी, वहीं मुरेलखुर्द के स्तूप 1853 में सामने आए। यहां के स्तूपों में भी अस्थियां थीं, जिन्हें इंग्लैंड ले जाया गया और फिर वापस नहीं आईं। ये स्तूप भी ईसा पूर्व दूसरी शताब्दी के हैं। इनका निर्माण बाद में दसवीं शताब्दी तक चला है। अब भी यहां 40 स्तूप हैं, लेकिन दुर्भाग्य कि मुरेलखुर्द में इस सबकी कोई जानकारी देने वाला न तो कोई सूचना पटल है और न कोई जिम्मेदार व्यक्ति। यहां पर्यटक पहुंच भी जाएं तो उन्हें एक लाइन की जानकारी मिलना भी मुश्किल होता है।
सांची के समकालीन है ये साइट
आर्कियोलॉजिस्ट एसबी ओट्टा कहते हैं कि मुरेल खुर्द के स्तूप सांची और सतधारा के स्तूपों के समकालीन हैं। सरकार बुद्धिस्ट साइट की बात तो करती है, लेकिन सुविधाओं और व्यवस्था के नाम पर कुछ नहीं करना चाहती। मुरेल खुर्द में साइट तक पहुंचने का रास्ता नहीं है, पर्यटकों को कैसे वहां तक लाएंगे। बुद्धिस्ट साइट विकसित करना है तो दो-चार दिन का प्लान करना चाहिए। अभी विदेशी पर्यटक आते हैं और दिन भर में सांची के स्तूप देखकर वापस चले जाते हैं। इसके लिए सांची, सतधारा, सुनारी, अंधेर, मुरेलखुर्द, ग्यारसपुर को जोडक़र बुद्धिस्ट साइट व्हीकल चलाया जाना चाहिए।
मुरेलखुर्द के बौद्ध साइट पर जानकारी का विवरण संबंधी पटल लगवाया जाएगा, लेकिन रास्ते के लिए पुरातत्व विभाग नहीं कर पाएगा। यह काम राज्य सरकार ही करा सकेगी। ये हमारे अधिकार क्षेत्र में नहीं है।
डॉ पीयूष भट्ट, अधीक्षण पुरातत्वविद्, एएसआइ भोपाल