लोगों को झकझोर गया
मुरवास का यह वाक्या लोगों को झकझोर गया। गांव में कोमलिया और उसकी बेटी अकेले रहते थे। कोमलिया के पति गंगाराम अहिरवार की कुछ वर्ष पहले मृत्यु हो गई थी। किसी तरह कोमलिया की बेटी का रिश्ता नैनवास कलां में तय हुआ और वह दिन भी आ गया, जब उसकी बेटी के हाथ पीले होना थे।
इसलिए कन्यादान का फर्ज निभाया
कोमलिया के मुंहबोले भाई हकीम खान ने। सब कुछ खुशी-खुशी हो रहा था। मां ने अपनी बेटी के फेरे पूरे देखे। लेकिन शायद वे ये खुशी बर्दाश्त नहीं कर पा रहीं थीं। उन्हें अपनी सबसे बड़ी जिम्मेदारी से मुक्त होने का आभास हो गया था, इसलिए फेरे पूरे होने के मात्र 10-12 मिनट में ही हार्ट अटैक से उनकी मौत हो गई। शादी की खुशियां और उत्साह मातम में बदल गया। किसी तरह गांव वालों ने कोमलिया की बेटी को विदा किया और फिर कोमलिया के अंतिम संस्कार की तैयारी की।
गांव के सभी लोगों ने साथ दिया
अर्थी सजाने से लेकर अंतिम संस्कार करने तक हिन्दूओं के साथ ही मुस्लिम समाज के लोग आगे थे। अर्थी को कंधा भी मुस्लिमों ने दिया और अंतिम संस्कार भी उन्हीं ने किया। अंतिम संस्कार में अब्दुल रज्जाक, कमर खान, खालिद, उमर, लईक और अनीस आदि ने मुख्य भूमिका निभाई, गांव के सभी लोगों ने साथ दिया।