मंदिर के महंत रामेश्वरदयाल चतुर्वेदी बताते हैं कि जब यहां बसाहट का दौर शुरू हुआ तो क्षेत्र के हरिसिंह सोलंकी के मन में यहां देवी पूजा के लिए देवी मंदिर की भावना जाग्रत हुई। 11 लोगों की एक कमेटी बनी, जिसके मुखिया हरिसिंह थे। मंदिर बनाने की तैयारी शुरू हुई तो जागीरदार शरीफ भाई ने यहां की हाजीबली तालाब से संबंधित और अपने स्वामित्व की जमीन दुर्गा मंदिर के लिए दान दे दी। जनसहयोग से मंदिर निर्माण हुआ और 1957 में ज्वाला देवी की प्रतिमा की प्राण प्रतिष्ठा हुई, यही प्रतिमा अब भी गर्भग्रह में विराजित है। चतुर्वेदी यह भी बताते हैं कि शरीफ भाई ने खुद चांदी के सिक्के भी मंदिर निर्माण में लगाए थे। चतुर्वेदी बताते हैं कि जब मंदिर बन गया तो पीपलखेड़ा से मेरे पिताजी पं. प्रभुदयाल चतुर्वेदी को यहां पूजन-सेवा की जिम्मेदारी सौंपी गई। पिताजी के बाद से खुद रामेश्वरदयाल चतुर्वेदी यहां सेवा कर रहे हैं, अब मंदिर भी भव्य रूप में आ गया है। यहां नवरात्र में जलने वाली अखंड ज्योतियों के कारण भी यह मंदिर प्रसिद्ध है। नवनिर्मित ज्योति दरबार में इस समय एक हजार से ज्यादा अखंड ज्योतियां प्रज्जवलित हैं।