मुनिश्री प्रमाण सागर ने भावना योग का महत्व बताते हुए कहा कि जैन साधना में जो ध्यान है वह चित्त की एकाग्रता का नाम है और वहां तो यह कहा गया कि यदि तुम ध्यान की गहराई में डूबना चाहते हो तो तुम कोई भी चेष्टा मत करो। कुछ बोलो मत, कुछ सोचो मत, आत्मा को आत्मा में स्थिर रखो, यही परम ध्यान है। शून्य भाव में पहुंच जाना, विचार शून्य, विकल्प शून्य, क्रिया शून्य वह परम ध्यान है। उन्होंने कहा कि जैन ध्यान में योग की शुद्धि की जगह उपयोग यानी भावों की शुद्धि को महत्व दिया गया। हमें उस तरफ ध्यान देना चाहिए और उसके बहुत अच्छे परिणाम भी है जो वर्तमान की साइकोलॉजी से भी जुड़े हुए हैं। मुनिश्री ने कहा कि भावना योग ध्यान नहीं है। वह एक अलग साधना, एक अभ्यास, एक ऐसा योग जिसके बल पर हम अपनी आत्मा का निर्मलीकरण कर सकें। अपनी चेतना की विशुद्धि बढ़ा सकें। उन्होंने कहा कि हममेें और पश्चिम वालों में बस यही अंतर है कि पश्चिम वाले अर्थ की बात करते हैं और हम परमार्थ की बात करते हैं। हम जो भावना भाते हंै वह होता है। हमें संसार नहीं चाहिए, भोग नहीं चाहिए, अर्थ नहीं चाहिए हमें तो तो परमार्थ चाहिए, परमात्मा चाहिए, त्याग चाहिए और योग चाहिए। इसके बाद मुनिश्री ने सभी को भावना योग का अभ्यास कराया।