आत्माएं देती हैं आशीर्वाद
इंडोनेशिया में एक कहावत कही जाती है कि लगभग 100 साल पहले एक गांव में टोराजन जनजाति का एक शिकारी जंगल में शिकार के लिए गया था। पोंग रुमासेक नाम के इस शिकारी को बीच जंगल में गली-सड़ी बदहाल हालत में एक लाश दिखी। उसने इस का उन्होंने अपने कपड़े पहनाकर अंतिम संस्कार किया। इसके बाद देखते ही देखते उनकी सारी दरिद्रता दूर हो गई। इसके बाद से ही टोराजन जनजाति के लोगों में अपने पूर्वजों की लाश को सजाने की प्रथा शुरू हो गई। मान्यता है कि लाश की देखभाल करने पर पूर्वजों की आत्माएं आशीर्वाद देती हैं।
मृत व्यक्ति की खुशी के खातिर मनाया जाता है यह त्योहार
इस त्योहार की शुरुआत किसी व्यक्ति के मरने के बाद ही शुरू हो जाती है। परिजन की मौत हो जाने पर उन्हें एक दिन में न दफना कर कई दिनों तक उत्सव मनाया जाता है। ये सब चीजें मृत व्यक्ति की खुशी के लिए की जाती हैं और उसे अगली यात्रा के लिए तैयार किया जाता है। इस यात्रा को पुया कहा जाता है। इस त्योहार के दौरान परिजन बैल और भैंसे जैसे जानवरों को मारते हैं और उनकी सींगों से मृतक का घर सजाते हैं। मान्यता है कि जिसके घर पर जितनी सींगें लगी होंगी, अगली यात्रा में उसे उतना ही सम्मान मिलेगा।
हर 3 साल बाद निकाले जाते हैं शव
लोग मृतक को जमीन में दफनाने की जगह लकड़ी के ताबूत में बंद करके गुफाओं में रख देते हैं। अगर किसी 10 साल कम उम्र के बच्चे की मौत हो जाती है उसे पेड़ों की दरारों में रख दिया जाता है। वहीं मृतक के शरीर को कई दिन तक सुरक्षित रखने के लिए कई अलग-अलग तरह के कपड़ों में लपेटा जाता है। मृतक को कपड़े ही नहीं बल्कि फैशनेबल चीजें भी पहनाई जाती हैं। सजाने-धजाने के बाद लोग मृतक को लकड़ी के ताबूत में बंदकर पहाड़ी गुफा में रख देते हैं। साथ में लकड़ी का एक पुतला उसकी रक्षा करने के लिए रखा जाता है, जिसे ताउ-ताउ कहते हैं। ऐसा माना जाता है कि ताबूत के अंदर रखा शरीर मरा नहीं है, बल्कि बीमार है और जब तक वो सोया हुआ है, उसे सुरक्षा चाहिए होगी। हर 3 साल पर लाशों को फिर से बाहर निकाला जाता है और उसे दोबारा नए कपड़े पहनाकर तैयार किया जाता है। इतना ही लोग लाशों के साथ बैठकर खाना तक खाते हैं।