शनि देव का संबंध लोहे से माना जाता है। इसलिए मुरैना स्थित शनि मंदिर के आस—पास लौह तत्व का भंडार मौजूद है। यहां जमीन से खूब लोहा निकलता है। जानकारों का मानना है कि उल्कापिंड गिरने की वजह से धरती के नीचे काफी मात्रा में लोहे के कण बिखर गए थे। जो आज भी खुदाई में निकलते हैं।
बताया जाता है कि पहले ये इलाका बिल्कुल सुनसान हुआ करता था। यहां घने जंगल थे। इसी के बीच शनि देव का विग्रह रखा हुआ था। इसे मंदिर का रूप देने में राजा विक्रमादित्य ने अहम भूमिका निभाई थी। इसके बाद 1808 में ग्वालियर के तत्कालीन महाराज दौलतराव सिंधिया ने मंदिर की व्यवस्था के लिए जागीर लगवाई। तत्कालीन शासक जीवाजी राव सिंधिया ने 1945 में जागीर को जप्त कर यह देवस्थान औकाफ बोर्ड ऑफ़ ट्रस्टीज ग्वालियर के प्रबंधन में सौंप दिया था।
पौराणिक धर्म ग्रंथों के अनुसार देश के प्रसिद्ध शनि शिंगणापुर में स्थित शनि के विग्रह के लिए शिला इसी पर्वत से ले जाई गई थी। इसलिए मुरैना स्थित शनि को सबसे प्राचीन माना जाता है। यहां दर्शन करने मात्र से भक्तों के सारे कष्ट दूर हो जाते हैं।